भारतवर्ष की प्रजा स्वभाव से धर्म की ओर विशेषरूप से आकृष्ट रहती है..इस देश के निवासियों की परमात्मा के प्रति स्वभाविक आस्था होती है..प्रत्येक मनुष्य यहाँ मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है..वह आवागमन के चक्र से छूटने के लिए निरंतर संघर्ष रत देखा जाता है..क्योंकि इस देश का निवासी यह जानता है कि उसे निजकर्मानुसार पशु,पक्षी,कीट,पतंगादि की योनियों में भ्रमण करना पड़ता है..यह मानव जन्म उसे बड़े सौभाग्य से प्राप्त होता है..अतः जीवन चक्र के कष्टों से यदि वह छूटकर परमात्मा के अपार आनंद का उपभोग करने लिए प्रयत्न कर सकता है तो इसी मानव योनि में ही कर सकता है , अतः इस पवित्र भूमि का प्रत्येक राम-कृष्ण का वंशज अपने को माननेवाला नागरिक परमेश्वर की भक्ति करने में रूचि रखता है , क्योंकि उसे बताया जाता है कि मोक्ष केवल परमात्मा की कृपा से संभव होता है...मोक्ष क्या है ? और वह किस प्रकार मिलता है इस विषय पर संसार के सभी मतवादियों ने विचार किया है और सभी ने विभिन्न प्रकार के मार्ग उसके लिए बताये है..वैदिक धर्म संसार का सर्वप्राचीन सृष्टि के आदि काल में परमात्मा प्रदत्त वेद ज्ञान के आधार पर सत्य धर्म है,उसमे मोक्ष के विषय में बताया गया है कि मुक्ति केवल योगियों को "वेदज्ञधीर" व्यक्तियों को ही प्राप्त होती है..इसके लिए निम्न वेद मन्त्र द्रष्टव्य है--
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात् !
तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यते अयनाय !! ( यजुर्वेद ३१ / १८ )
अर्थात मोक्ष प्राप्ति का केवल एक ही मार्ग है कि परमेश्वर को जाना जाये कि अन्धकार से परे ज्ञानस्वरूप एवं प्रकाशरूप महान सर्वव्यापक सत्ता है..इसके अतिरिक्त अन्य मार्ग मोक्ष का नहीं है.
परमेश्वर को जानने के लिए मनुष्य को पूर्ण सदाचारी,यम-नियमों का पालन करनेवाला पूर्ण योगी होना आवश्यक है..क्योंकि परमात्मा पंचभूतों का कार्य न होने से पञ्च ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जाता , बल्कि समाधिस्थ अवस्था में अनुभव किया जाता है..जो कि बिना योगाभ्यास के किसी भी प्रकार संभव नहीं है..पूर्ण योगी जब समाधिस्थ होता है,उसका बाह्य जगत से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है तो आनंद रूप से परमेश्वर की प्राप्ति होती है , वह प्रभु के आनंद में तन्मय हो जाता है..इस प्रकार दीर्घकाल तपस्या करते-करते अंत में जब योगी भौतिक शरीर का त्याग करता है तो वह प्राणों को आकर्षित करके सुषुम्णा नाड़ी के मार्ग से सर के उस स्थान से (द्वार से) जिसे ब्रह्म-रंध्र कहते है और जहाँ इस नाड़ी का अंत होता है तथा जहाँ तक शिखा रखी जाती है , वहाँ से निकालकर भौतिक देह को त्याग कर परमात्मा से सायुज्य स्थापित कर लेता है..जैसे कि उपनिषत्कार ने लिखा है--
" सूर्यद्वातेण ते विरजाः प्रयान्ति "
अर्थात योगी सूर्य नाड़ी के मार्ग से प्राणों का उत्सर्ग करके मोक्ष को प्राप्त करते है..श्री कृष्णजी के उपदेशों के नाम से बाद को गढ़ी पुस्तक गीता में उसके लेखक ने भी इसी बात का प्रतिपादन स्पष्ट शब्दों में किया है--
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्विषः !
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम् !! ( गीता ६ / ४५ )
अर्थात अनेक जन्मों से सिद्धि को प्राप्त हुआ और अति प्रयत्न से योगाभ्यास करनेवाला योगी पुरुष सम्पूर्ण पापों से शुद्ध होकर उस साधन के प्रभाव से परमगति ( मोक्ष ) को पाप्त होता है
इससे स्पष्ट है कि मोक्ष पाना सरल कार्य नहीं है..यह केवल ब्रह्मवेत्ता योगी लोगों के लिए ही संभव है..किन्तु इस तथ्य को न समझकर अनेक लोगों ने मोक्षाभिलाषी जनता को अनेक प्रकार के सरल मार्ग अपनी कल्पना से स्वार्थवश बताकर सत्य से विमुख बनाया है, और इसी आधार पर नाना प्रकार के सम्प्रदायों की सृष्टि संसार में हुई है
ईसाई मत में ईसामसीह पर ईमान लाना और क़यामत के दिन ईसा की सिफारिश से मुक्ति मिलने का विधान है..मुसलमानों में इस्लाम,कुरान,खुदा और मुहम्मद पर ईमान लाना और क़यामत के दिन मुहम्मद साहब की सिफारिश से मुक्ति मिलने की व्यवस्था है ..बौद्ध मत में भगवान् बुद्ध ही मुक्तिदाता माने गये है..जैन मत में तीर्थंकारों की मूर्ती की उपासना,सम्यक दर्शन,सम्यक आचरण से मुक्ति मानी गयी है..कबीर मत में कबीरदास ही मुक्तिदाता है..शैव मत में शिवजी,वैष्णव मत में विष्णु ,शाक्त मत में देवी की उपासना व उनकी मूर्ती पूजा करने से मुक्ति मिलती है
जिस-जिस सम्प्रदाय को जिस-जिस व्यक्ति ने चलाया , उस सम्प्रदाय में उसी व्यक्ति को परमात्मा मानकर उसकी पूजा का विधान जारी हो गया है और उसे ही उसके भक्तों ने मुक्तिदाता परमेश्वर मान लिया है..हमारे देश में आज भी कई नये-नये पंथ जारी हो रहे हैं,चतुर लोगों ने स्वयं को परमात्मा का अवतार बता कर जनता को बहका रखा है..यह गुरुडमवाद हमारे देश के लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध हो रहा है..जनता को बताया जाता है कि गुरु ही साक्षात परमेश्वर होता है..बिना गुरु के कोई भी मुक्ति नहीं पा सकता है..गुरु ही ब्रह्मा रूप है..उसी कि सर्वात्मना भक्ति करनी चाहिए..उसको तथा उसके चित्रों को पूजना चाहिए
भक्त लोग अपने गुरु की नाना प्रकार की चामत्कारिक कल्पित बातें लोगों को जा-जाकर सुनाते हैं..विशेषतः स्त्रीयों को प्रभावित करते हैं और सरलता से उनको चेला-चेली बनाकर अपने पंथ का विस्तार करते हैं
जब एक व्यक्ति अवतार बनकर जनता को ठगकर अपने सम्प्रदाय द्वारा अपना उल्लू सीधा करने में सफल हो जाता है तो दूसरे ठग भी उसी की नक़ल करके अपने को अवतार बनाकर अपने-अपने सम्प्रदाय चालु करने को उत्साहित होते हैं..ये लोग स्वयं तथा इनके चेले लोग अपने सम्प्रदाय के गुरु को जीवनदाता,कल्याणप्रदाता सर्वदुख तारक,साक्षात मोक्ष देने वाला बताते है..उसकी श्रेष्ठता का पाठ जनता को पढ़ाते हैं , उसकी प्रशंसा में मिथ्या महात्म्य लिख-लिखकर उसके गौरव की धाक चेले-चेलियों पर जमाते है..और उन्हें अपना सर्वस्व गुरूजी को अर्पण कर देने का पाठ पढ़ाते हैं इनके रटे हुए व्याख्यानों को सुन-सुनकर साधारण बुद्धिमानों की कौन कहे बड़े-बड़े भी बहक जाते हैं..रोगों से मुक्ति,मुकद्दमों में विजय,शत्रुओं का नाश,धनवान ,पुत्रवान बनने की कामनाएँ भक्तों की गुरु सेवा व उसके प्रसाद से होने की बनावटी दृष्टान्तों सहित कथाएँ जब इनके प्रचारक जनता को सुनाते हैं तो परेशान लोग यह सोचकर कि शायद हमारा भी कल्याण हो जाये ,उनकी बातों पर विशवास करके उनके गुरूजी के चेले बन जाते है..विशेषतः भोली-भाली स्त्रियाँ उनके जाल में सुगमता से फंस जाती हैं,और अपना तन,मन,धन सर्वस्व गुरूजी को दे बैठती हैं..गुरूजी का ४२० का जीवन इन पाखंडों से आनंद के साथ बीतता है..उनके हथकंडों से उन्हें सारे भोग सुगमता से प्राप्त हो जाते है तथा अज्ञानी चेले-चेली व भक्तजन लुटते व मूर्ख बनकर अपने भाग्य पर रोया करते है.
हम आगे कुछ इन ढोंगी गुरुओं के जाली माहात्म्य के प्रमाण उपस्थित करते हैं , जिनसे पाठक इनके ढकोसला फैलाने के हथकण्डों को समझ सकेंगे । विद्वानों का कर्तव्य है कि वे इन सारे सम्प्रदायों का , उनके पाखण्डों का खण्डन करें तथा जनता को सत्य वैदिक धर्म का मार्ग प्रदर्शित करें जिससे संसार से मत-मतान्तरों का विनाश होकर मानव धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझ सकें और लोक व् परलोक सुधार सकें ।
गुरुडम के जाली माहात्म्य --
गुरुः ब्रह्मा गुरुः विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः |
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ||
संसारवृक्षसमारुढा पतन्ति नरकार्णवे |
येनाधृता जनाः सर्वेः तस्मै श्री गुरुवे नमः ||
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् |
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः ||
स्थावरे जङ्गमे व्याप्तं यत् किञ्चित् सचराचरम् |
तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः ||
चैतन्यं शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निरञ्जनम् |
विन्दुनादकलातीतं तस्मै श्री गुरुवे नमः ||
यस्य स्मरणमात्रेण ज्ञान मुत्पदायेत् स्वयम् |
सर्वदा सर्वसम्पत्तिः तस्मै श्री गुरुवे नमः ||
सर्वशक्तिसमायुक्तं तत्त्वज्ञानविभूषितम् |
भक्तिमुक्तिप्रदातारं तस्मै श्री गुरुवे नमः ||
नाशनमात्रपापानां दीपनां ज्ञानसम्पदाम् |
यस्य पादोदकं पेयं तस्मै श्री गुरुवे नमः ||
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः कृपा ||
श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं नमामि श्रीमत्परं ब्रह्म भजामि |
श्री मत्परं ब्रह्म गुरुं जपामि श्री मत्परं ब्रह्म गुरुंस्मरामि ||
-- ( गुरुप्रसाद पत्र मार्च सन् 1962 से )
अर्थ :- गुरु ही ब्रह्मा , विष्णु , महादेव है । वही परब्रह्म है । उसे ही मैं नमस्कार करता हूँ ।
संसाररूपी वृक्ष पर सवार मनुष्य नरक के सागर में गिरते हैं । उनका उद्धार गुरु ही करते हैं अतः उस गुरूजी को नमस्कार है ।
अखण्ड मण्डलाकार विश्व में व्याप्त परमेश्वर है , उस चराचर में व्याप्त पद दिखानेवाला गुरु है , उस गुरु को नमस्कार है ।
सम्पूर्ण जड़ व् चैतन्य जगत में व्याप्त जो ब्रह्म है उस पद को दिखानेवाले गुरु को नमस्कार है ।
गुरु ही चैतन्य है , नित्य है , शान्त है , आकाश से भी महान है , निरंजन है , विन्दु ओंकार उसका नाद है , वह सम्पूर्ण कलाओं से भी परे है । उस गुरु को नमस्कार है ।
जिसके स्मरण मात्र से स्वयं सम्पूर्ण ज्ञान विज्ञान का भक्त में उदय हो जाता है वही सर्वदा सब से बड़ी महान सम्पत्ति है । उस गुरु को नमस्कार है ।
सारी शक्तियाँ जिसमे हैं , जो तत्त्वज्ञान से विभूषित है जो भक्ति और मुक्ति को देनेवाला है उस गुरु को नमस्कार है ।
जो सारे पापो को नष्ट करनेवाला है और ज्ञानरूपी सम्पत्ति का प्रदाता है , जिसके चरणों का धोवन अमृत है , उसी गुरु देव को नमस्कार है ।
ध्यान करने के लिए गुरु की प्रतिमा है , मोक्ष का मूल केवल गुरु की कृपा है , सम्पूर्ण श्लोकों का मूल ( सार ) केवल गुरु का वाक्य तथा मोक्ष का आधार केवल गुरु की कृपा है । इसलिए मैं श्रीमान परब्रह्म गुरु का ही भजन करता हूँ । श्रीमान परब्रह्म गुरूजी का ही जप करता हूँ , श्रीमान परब्रह्म गुरूजी का ही स्मरण करता हूँ ।
गुरु पूजा माहात्म्य
श्री गुरुं प्राकृतै सार्धं ये स्मरन्ति वदन्ति वा |
तेषां हि सुकृतां सर्वं पातकं भवति प्रिये ||
जन्महेतुः हि पितरौ पूजनीयौ प्रयत्नतः |
गुरुः विशेषतः पूज्यो धर्माधर्मप्रदर्शकः |
गुरुः पिता गुरुर्माता गुरुर्देवो गुरुर्गतिः |
शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन ||
गुरोर्हितं हि कर्तव्यं मनो वा क्वाथ कर्मभिः |
आहिताचरणाद्येवि विष्ठायां जपते कृमिः ||
शरीरवित्तनाशश्च श्री गुरुंवञ्चयन्ति ये |
कृमिकीटपतङ्गत्वं प्राप्नुवन्ति न संशयः ||
गुरुर्त्यागाद् भवेन्मृत्युः मन्त्रत्यागाद् दरिद्रता |
गुरुमन्त्रपरित्यागाद् रौरवनरकं व्रजेत् ||
गुर्वर्थं धारयेद् देहं गुर्वर्थं धनमर्जयेत् |
निजप्राणन् परित्यज्य गुरुकार्यं समाचरेत् ||
भोगभोज्यानि वस्तूनि गुरवे च समर्थयेत् |
स्वशास्त्रोक्तरह्स्याद्यं न वदेद् यस्य कस्यचित् ||
श्रीगुरुनिन्दास्यात् पिधाय श्रवणे अम्बिके |
सद्यस्तस्मादुपक्रामेद् दूरं न श्रणुयाद् यथा ||
श्रीगुरु श्रीपादुकापूजा गुरुर्नामिस्तुतिर्जपः |
गुर्वाज्ञाकरणं कृत्यं शुश्रूषसा भजनं गुरोः ||
ब्रह्महत्या शतं कुर्याद् गुर्वाज्ञां प्रतिपाल येत् ||
-- ( कुलार्णवतन्त्र उल्लास 12 )
अर्थ :- जो लोग गुरु को स्वभावत स्मरण करते व् दान का यशोगान करते हैं , उनके सारे पाप भी पुण्य में बदल जाते है ।
जन्म का कारण होने से माता-पिता की यत्न से पूजा करनी चाहिए , किन्तु धर्म-अधर्म का मार्गदर्शक होने से गुरु विशेष रूप से पूजनीय होता है ।
गुरु ही पिता , गुरु ही माता , गुरु ही गति है ।शिवजी के नाराज होने से गुरु रक्षा करता है , किन्तु गुरु के अप्रसन्न होने पर कोई बचानेवाला नहीं है ।
मनसा वाचा कर्मणा गुरु के हित का काम करे । गुरु का अहित करनेवाले हे देवि ! विष्ठा का कीड़ा बनता है ।
जो लोग गुरु के शरीर से अथवा धन हरण करके कष्ट पहुँचाते हैं वे निश्चयपूर्वक कृमि , कीट व् पतंगे बनते हैं ।
गुरु को त्यागने से मृत्यु हो जाती है , मन्त्र को त्यागने से दरिद्रता होती है , गुरु और मन्त्र दोनों को त्यागने से घोर रौरव नरक को जाता हैं ।
गुरु के लिए ही देह धारण करे , गुरु के लिए ही धन पैदा करे । अपने प्राणों को त्याग कर भी गुरु के कार्य को करना चाहिए ।
समस्त भोग्य पदार्थ तथा समस्त खाने के पदार्थों को गुरु को अर्पण कर देवे । अपने शास्त्र के रहस्य ( गुप्त बातों ) को कभी भी किसी को न बतावे ।
हे पार्वती ! गुरु की निन्दा की बात कभी भी कानों से न सुनें । जहाँ ऐसी बात होती है वहाँ से दूर चला जावे ।
श्री गुरु की खड़ाऊँ की पूजा , गुरु के नाम का जप और स्मरण ही कर्तव्य है । गुरु की आज्ञा ही आचरणीय है , गुरु की सेवा ही गुरु का भजन करना है ।
चाहे सैकड़ों ब्राह्मणों की हत्याएँ करनी पड़ें तो अवश्य करे । पर गुरु की आज्ञा का पालन अवश्य करना चाहिए , उसका उल्लंघन कदापि न करें ।
अवतारवाद का सारा सिद्धांत ही जाली है और गीता ने स्वयं इस जाली सिद्धांत का समर्थन करके भारतवर्ष की हिन्दू जाति को मूर्ख बनाया है । सारा गुरुडम और सारे जाली अवतारों की भूमिका तथा आधार गीता के दो प्रसिद्ध श्लोक हैं -----
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानामधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||
---- गीता 4 / 7-8
अर्थात -- जब-जब धर्म की ग्लानि होती है तब-तब मैं धर्म के उत्थान , साधुओं की रक्षा तथा दुष्टों के विनाश के लिए अवतार लिया करता हूँ ।
यह सार पाखण्ड तथा विष इन्ही श्लोकों के आधार पर फैला है । मुसलामानों में कोई दूसरा पैगम्बर नहीं बन सकता है , ईसाइयों
में कोई खुदा का बेटा नहीं बन सकता है । पर इस कमबख्त हिन्दू कौम में जो जी चाहता है अवतार बन जाता है , स्वयं परमात्मा , "ब्रह्म" बन बैठता है ।
कोई रोकनेवाला नहीं है ।
( साभार :- आचार्य डॉ.श्रीराम आर्य कृत "गुरुडम के पाखण्ड" से )
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