Tuesday, 17 September 2013

श्राद्ध मीमांसा

श्राद्ध क्या है ? श्राद्ध का अर्थ है सत्य का धारण करना अथवा जिसको श्रद्धा से धारण किया जाए ..श्रद्धापूर्वक मन में प्रतिष्ठा रखकर,विद्वान,अतिथि,माता-पिता, आचार्य आदि की सेवा करने का नाम श्राद्ध है.
श्राद्ध जीवित माता-पिता,आचार्य ,गुरु आदि पुरूषों का ही हो सकता है,मृतकों का नहीं.मृतकों का श्राद्ध तो पौराणिकों की लीला है..वैदिक युग में तो मृतक श्राद्ध का नाम भी नहीं था..
वेद तो बड़े स्पष्ट शब्दों में माता-पिता,गुरु और बड़ों की सेवा का आदेश देता है,यथा--
अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः ! --अथर्व:-३-३०-२
पुत्र पिता के अनुकूल कर्म करने वाला और माता के साथ उत्तम मन से व्यवहार करने वाला हो..
मृतक के लिए बर्तन देने चाहिएँ और वे वहाँ पहुँच जाएँगे,मृतक का श्राद्ध होना चाहिए तथा इस प्रकार होना चाहिए और वहाँ पहुँच जाएगा ,ऐसा किसी भी वेदमंत्र में विधान नहीं है..
श्राद्ध जीवितों का ही हो सकता है,मृतकों का नहीं..पितर संज्ञा भी जीवितों की ही होती है मृतकों की नहीं ..वैदिक धर्म की इस सत्यता को सिद्ध करने लिए सबसे पहले पितर शब्द पर विचार लिया जाता है..
पितर शब्द "पा रक्षेण" धातु से बनता है,अतः पितर का अर्थ पालक,पोषक,रक्षक तथा पिता होता है..जीवित माता-पिता ही रक्षण और पालन-पोषण कर सकते है..मरा हुआ दूसरों की रक्षा तो क्या करेगा उससे अपनी रक्षा भी नहीं हो सकती,अतः मृतकों को पितर मानना मिथ्या तथा भ्रममूलक है..वेद,रामायण,
महाभारत,गीता,पुराण,ब्राह्मण ग्रन्थ तथा मनुस्मृति आदि शास्त्रों के अवलोकन से यह स्पष्ट विदित हो जाता है कि पितर संज्ञा जीवितों कि है मृतकों कि नहीं..
उपहूताः पितरः सोम्यासो बर्हिष्येषु निधिषु प्रियेषु !
त आ गमन्तु त इह श्रुवन्त्वधि ब्रुवन्तु ते अवन्त्वस्मान !! (यजुर्वेद:-१९-५७)
हमारे द्वारा बुलाये जाने पर सोमरस का पान करनेवाले पितर प्रीतिकारक यज्ञो तथा हमारे कोशों में आएँ.वे पितर लोग हमारे वचनों को सुने,हमें उपदेश दें तथा हमारी रक्षा करें .
इस मन्त्र में महीधर तथा उव्वट ने इस बात को स्वीकार किया है कि पितर जीवित होते है,मृतक नहीं क्योंकि मृतक न आ सकते है,न सुन सकते है न उपदेश कर सकते है और न रक्षा कर सकते है..
आच्या जानु दक्षिणतो निषद्येदं नो हविरभि गृणन्तु विश्वे !! (अथर्व वेद:-१८-१-५२)
हे पितरो ! आप घुटने टेक कर और दाहिनी ओर बैठ कर हमारे इस अन्न को ग्रहण करें ..
इस मन्त्र का अर्थ करते हुए सायण , महीधर,उव्वट और ग्रिफिथ साहब --सब घुटने झुककर वेदी के दक्षिण ओर बैठना बता रहे है..क्या मुर्दों के घुटने होते है? इस वर्णन से प्रकट हो जाता है कि जीवित प्राणियों की ही पितर संज्ञा है..
ज्येष्ठो भ्राता पिता वापि यश्च विद्यां प्रयच्छति !
त्रयस्ते पितरो ज्ञेया धामे च पथि वर्तिनः !! (वाल्मीकि रामायण :-१८-१३)
धर्म -पथ पर चलने वाला बड़ा भाई ,पिता और विद्या देने वाला --ये तीनों पितर जानने चाहिएँ
जनिता चोपनेता च यस्तु विद्यां प्रयच्छति !
अन्नदाता भयस्त्राता पञ्चैता पितरः स्मृताः !! ( चाणक्य नीति :-५-२२)
विद्या देनेवाला ,अन्न देनेवाला,भय से रक्षा करने वाला ,जन्मदाता --ये मनुष्यों के पितर कहलाते है..
श्वेताश्वेतारोपनिषद के इस कथन के अनुसार--
नैव स्त्री न पुंमानेश न चैवायं नपुंसकः !
यद्यच्चरीरमादत्ते तेन तेन स लक्ष्यते !! (--५-१०)
यह आत्मा न स्त्री है,न पुरुष है न ही यह नपुंसक है, किन्तु जिस-जिस शारीर को ग्रहण करता है उस उस से लक्षित किया जाता है..मरने के बाद इसकी पितर संज्ञा कैसे हो सकती है ?
यदि दुर्जनतोषन्याय वश मृतक श्राद्ध स्वीकार कर लिया जाए तो इसमें अनेक दोष होंगे..सबसे पहला दोष कृतहानि का होगा..कर्म कोई करे और फल किसी और को मिले,उसको कृत हानि कहते है..परिश्रम कोई करे और फल किसी और को मिले ..दान पुत्र करे और फल माता-पिता को मिले तो कृत हानि दोष आएगा
दूसरा दोष अकृताभ्यागम का होगा..कर्म किया नहीं और फल प्राप्त हो जाए,उसे अकृताभ्यागम कहते है..मनुष्य के न्याय में तो ऐसा हो सकता है कि कर्म कोई करे और फल किसी और को मिल जाए,परन्तु परमात्मा के न्याय में ऐसा नहीं हो सकता..पौराणिक कहते है कि फल को अर्पण करने के कारण दूसरे को मिल जाता है, परन्तु यह बात ठीक नहीं..बेटा किसी व्यक्ति को मारकर उसका फल पिता को अर्पण कर दे तो क्या पिता को फांसी हो जायेगी? यदि ऐसा होने लग जाए तब तो लोग पाप का संकल्प भी पौराणिक पंडितों को ही कर दिया करेंगे...इन दोषों के के कारण भी मृतक श्राद्ध सिद्ध नहीं होता..
अब विचारणीय बात है यह है कि उन्हें भोजन किस प्रकार मिलेगा..भोजन वहाँ पहुँचता है या पितर लोग यहाँ करने आते है..यदि कहो कि वहीँ पहुँचता है तो प्रत्यक्ष के विरुद्ध है..क्योंकि तृप्ति ब्राह्मण की होती है..यदि भोजन पितरों को पहुँच जाता तब तो वह सैकड़ो घरों में भोजन कर सकता था..मान लो भोजन वहाँ जाता है तब प्रश्न यह है कि वही सामान पहुँचता है जो पंडितजी को खिलाया जाता है या पितर जिस योनि में हो उसके अनुरूप मिलता है..यदि वही सामान मिलता हो और पितर चींटी हो तो दबकर मर जायेगी और यदि पितर हाथी हो तो उसको क्या असर होगा?यदि योनि के अनुसार मिलता है तब यदि पितर मर कर सूअर बन गया हो तो क्या उसको विष्ठा के रूप में भोजन मिलेगा?यह कितना अन्याय और अत्याचार है कि ब्राह्मणों को खीर और पूरी खिलानी पड़ती है और उसके बदले मिलता है मल..इस सिद्धांत के अनुसार श्राद्ध करने वालो को चाहिए कि ब्राह्मणों को कभी घास,कभी मांस,कभी कंकर-पत्थर आदि खिलाये क्योंकि चकोर का वही भोजन है..योनियाँ अनेक है और प्रत्येक का भोजन भिन्न-भिन्न होता है,अतः बदल-बदलकर खाना खिलाना चाहिए,क्योंकि पता नहीं पितर किस योनि में है..
कहते है श्राद्ध करने वाले का पिता पेट में बैठ कर.दादा बाँई कोख में बैठकर ,परदादा दाँई कोख में बैठ कर और खाने वाला पीठ में बैठ कर भोजन करता है..
पौराणिकों ! यह भोजन करने का क्या तरीका है?पहले पितर खाते है या ब्राह्मण?झूठा कौन खाता है ?क्या पितर ब्राह्मण के मल और खून का भोजन करते है?
एक बात और पितर शरीर सहित आते है या बिना शरीर के? यदि शरीर के साथ आते है तो पेट में उतनी जगह नहीं कि सब उसमे बैठ जाएँ और साथ ही आते किसी ने देखा भी नहीं अतः शरीर को छोड़ कर ही आते होंगे..पितरों के आने-जाने में ,भोजन परोसने में तथा खाने आदि में समय तो लगता ही है,अतः पितर वहाँ जो शरीर छोड़ कर आये है उसे भस्म कर दिया जाएगा,इस प्रकार सृष्टि बहुत जल्दी नष्ट हो जायेगी..मनुष्यों की आयु दो-तीन मास से अधिक नहीं होगी..जब क्वार का महिना आएगा तभी मृत्यु हो जायेगी,अतः श्राद्ध कदापि नहीं करना चाहिए..
इस प्रकार यह स्पष्ट सिद्ध है कि श्राद्ध जीवित माता -पिता का ही हो सकता है..महर्षि दयानंद सरस्वती का भी यही अटल सिद्धांत है..मृतक श्राद्ध अवैदिक और अशास्त्रीय है..यह तर्क से सिद्ध नहीं होता..यह स्वार्थी,टकापंथी और पौराणिकों का मायाजाल है ..
सावधान ! पौराणिक लैटर बाक्स में छोड़ा हुआ पार्सल अपने स्थान पर नहीं पहुँचता....
( प्रस्तुत लेख पूज्य स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती जी के tract का संपादित अंश है )

Thursday, 22 August 2013

संगठन से उन्नति

सं समिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ !
इळस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर !!
मनुष्य की सारी चेष्टा दुखनिवारण और सुख प्राप्ति के निम्मित होती है अतः अंत में सुखवर्षक भगवान् की शरण में जाकर उसी से वह कामना करता है!वही सबकी उन्नति करता है, और वही सबका स्वामी है! उसे साधक ने अपने हृदय में प्रकाशमान और विराजमान अनुभव किया है, अतः उसी से अपने दुखों के नाशक और सुखों के साधक धनों की प्राप्ति के लिए प्रार्थना की है! इस प्रार्थना का भगवान् ने अगले तीन मन्त्रों में उत्तर दिया है---
सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनान्सि जानताम् !
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते !!
मनुष्य समाज यदि सुख चाहता है, तो उसे उत्तम प्रकार का, एक-सा आचार बनाना होगा! उस उत्तम आचार के लिए एक-सा उच्चार =बोली=भाषा का ग्रहण करना होगा! उच्चार की समानता लिए विचार की समानता अनिवार्य है! विद्वान लोगों का ऐसा ही व्यवहार होता है! दुसरे शब्दों में संगति,संवाद एवं संज्ञान से ही मनुष्य समाज का कल्याण हो सकता है !
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह् चित्त्मेषां !
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि !!
विचार,विचार सभा ,विचारसाधन तथा विचार का फल समझ कर सबकी धारणा एक-सी होनी चाहिए ! भगवान् कहते
है कि तुम सबको मैंने एक ही मन्त्र=वेद मन्त्र दिया है, और तुम्हारे लिए एक ही भोग सामग्री दी है !
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः !
समानमस्तु वो मनो यथा वः सु सहासति !!
संकल्प की एकता के लिए सारे समुदाय को दिल, दिमाग भी वैसे बनाने चाहिए !
यह चार मन्त्र ऋग्वेद के अंतिम मन्त्र है! ऋग्वेद में विज्ञान--परमाणु से लेकर ब्रह्मपर्यंत सब पदार्थों का यथार्थ मनुष्योपयोगी ज्ञान--का भगवान् ने उपदेश किया है! उस समस्त ज्ञान का फल मनुष्य के आचार-विचार की एकता होनी चाहिए , उसके लिए भगवान् ने ऋग्वेद के अंत में इस सुन्दर,सुमनोहर संज्ञान का उपदेश किया है! जो समाज या राष्ट्र इसके अनुसार आचरण करेगा,अवश्य वह धन-धान्य से परिपूर्ण और सुखसमृद्धि से समृद्ध होगा !
इस सूक्त का ,जैसा कि हम बता चुके है,पहला मन्त्र भगवान् से प्रार्थना है! प्रार्थी ने धन कि प्रार्थना की है! भगवान् ने उत्तर में धन ,सुख-साधन प्राप्त करने की युक्तियों का अगले तीन मन्त्रों में उपदेश कर दिया है ! उस उपदेश का सार यह है कि----संघशक्ति उत्पन्न करो!संघशक्ति के लिए आचार-विचार की समानता,उद्देश्यों-भावनाओं की समता , दिलों और दिमागों की एकता, दिल और दिमाग का परस्पर सहयोग ,उपासना पद्धति की समानता,खान_पान की समानता आवश्यक है! जब इस प्रकार की समता समाज में हो,तब ईर्ष्या -द्वेष,वैर-वैमनस्य का कोई स्थान नहीं रहता !

साभार:-स्वामी वेदानन्द (दयानद) तीर्थ की पुस्तक "स्वाध्याय -संदीप" से

Thursday, 23 May 2013

गुरुडम के पाखण्ड

  भारतवर्ष की प्रजा स्वभाव से धर्म की ओर विशेषरूप से आकृष्ट रहती है..इस देश के निवासियों की परमात्मा के प्रति स्वभाविक आस्था होती है..प्रत्येक मनुष्य यहाँ मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है..वह आवागमन के चक्र से छूटने के लिए निरंतर संघर्ष रत देखा जाता है..क्योंकि इस देश का निवासी यह जानता है कि उसे निजकर्मानुसार पशु,पक्षी,कीट,पतंगादि की योनियों में भ्रमण करना पड़ता है..यह मानव जन्म उसे बड़े सौभाग्य से प्राप्त होता है..अतः जीवन चक्र के कष्टों से यदि वह छूटकर परमात्मा के अपार आनंद का उपभोग करने लिए प्रयत्न कर सकता है तो इसी मानव योनि में ही कर सकता है , अतः इस पवित्र भूमि का प्रत्येक राम-कृष्ण का वंशज अपने को माननेवाला नागरिक परमेश्वर की भक्ति करने में रूचि रखता है , क्योंकि उसे बताया जाता है कि मोक्ष केवल परमात्मा की कृपा से संभव होता है...मोक्ष क्या है ? और वह किस प्रकार मिलता है इस विषय पर संसार के सभी मतवादियों ने विचार किया है और सभी ने विभिन्न प्रकार के मार्ग उसके लिए बताये है..वैदिक धर्म संसार का सर्वप्राचीन सृष्टि के आदि काल में परमात्मा प्रदत्त वेद ज्ञान के आधार पर सत्य धर्म है,उसमे मोक्ष के विषय में बताया गया है कि मुक्ति केवल योगियों को "वेदज्ञधीर" व्यक्तियों को ही प्राप्त होती है..इसके लिए निम्न वेद मन्त्र द्रष्टव्य है--
        वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्  !
        तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यते अयनाय  !!     ( यजुर्वेद  ३१ / १८ )
   अर्थात मोक्ष प्राप्ति का केवल एक ही मार्ग है कि परमेश्वर को जाना जाये कि अन्धकार से परे ज्ञानस्वरूप एवं प्रकाशरूप महान सर्वव्यापक सत्ता है..इसके अतिरिक्त अन्य मार्ग मोक्ष का नहीं है.
   परमेश्वर को जानने के लिए मनुष्य को पूर्ण सदाचारी,यम-नियमों का पालन करनेवाला पूर्ण योगी होना आवश्यक है..क्योंकि परमात्मा पंचभूतों का कार्य न होने से पञ्च ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जाता , बल्कि समाधिस्थ अवस्था में अनुभव किया जाता है..जो कि बिना योगाभ्यास के किसी भी प्रकार संभव नहीं है..पूर्ण योगी जब समाधिस्थ होता है,उसका बाह्य जगत से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है तो आनंद रूप से परमेश्वर की प्राप्ति होती है , वह प्रभु के आनंद में तन्मय हो जाता है..इस प्रकार दीर्घकाल तपस्या करते-करते अंत में जब योगी भौतिक शरीर का त्याग करता है तो वह प्राणों को आकर्षित करके सुषुम्णा नाड़ी के मार्ग से सर के उस स्थान से (द्वार से) जिसे ब्रह्म-रंध्र कहते है और जहाँ इस नाड़ी का अंत होता है तथा जहाँ तक शिखा रखी जाती है , वहाँ से निकालकर भौतिक देह को त्याग कर परमात्मा से सायुज्य स्थापित कर लेता है..जैसे कि उपनिषत्कार ने लिखा है--
      " सूर्यद्वातेण ते विरजाः प्रयान्ति "
   अर्थात योगी सूर्य नाड़ी के मार्ग से प्राणों का उत्सर्ग करके मोक्ष को प्राप्त करते है..श्री कृष्णजी के उपदेशों के नाम से बाद को गढ़ी पुस्तक गीता में उसके लेखक ने भी इसी बात का प्रतिपादन स्पष्ट शब्दों में किया है--
       प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्विषः  !
       अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्  !!    ( गीता  ६ / ४५ )
   अर्थात अनेक जन्मों से सिद्धि को प्राप्त हुआ और अति प्रयत्न से योगाभ्यास करनेवाला योगी पुरुष सम्पूर्ण पापों से शुद्ध होकर उस साधन के प्रभाव से परमगति ( मोक्ष ) को पाप्त होता है
   इससे स्पष्ट है कि मोक्ष पाना सरल कार्य नहीं है..यह केवल ब्रह्मवेत्ता योगी लोगों के लिए ही संभव है..किन्तु इस तथ्य को न समझकर अनेक लोगों ने मोक्षाभिलाषी जनता को अनेक प्रकार के सरल मार्ग अपनी कल्पना से स्वार्थवश बताकर सत्य से विमुख बनाया है, और इसी आधार पर नाना प्रकार के सम्प्रदायों की सृष्टि संसार में हुई है
   ईसाई मत में ईसामसीह पर ईमान लाना और क़यामत के दिन ईसा की सिफारिश से मुक्ति मिलने का विधान है..मुसलमानों में इस्लाम,कुरान,खुदा और मुहम्मद पर ईमान लाना और क़यामत के दिन मुहम्मद साहब की सिफारिश से मुक्ति मिलने की व्यवस्था है ..बौद्ध मत में भगवान् बुद्ध ही मुक्तिदाता माने गये है..जैन मत में तीर्थंकारों की मूर्ती की उपासना,सम्यक दर्शन,सम्यक आचरण से मुक्ति मानी गयी है..कबीर मत में कबीरदास ही मुक्तिदाता है..शैव मत में शिवजी,वैष्णव मत में विष्णु ,शाक्त मत में देवी की उपासना व उनकी मूर्ती पूजा करने से मुक्ति मिलती है
   जिस-जिस सम्प्रदाय को जिस-जिस व्यक्ति ने चलाया , उस सम्प्रदाय में उसी व्यक्ति को परमात्मा मानकर उसकी पूजा का विधान जारी हो गया है और उसे ही उसके भक्तों ने मुक्तिदाता परमेश्वर मान लिया है..हमारे देश में आज भी कई नये-नये पंथ जारी हो रहे हैं,चतुर लोगों ने स्वयं को परमात्मा का अवतार बता कर जनता को बहका रखा है..यह गुरुडमवाद हमारे देश के लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध हो रहा है..जनता को बताया जाता है कि गुरु ही साक्षात परमेश्वर होता है..बिना गुरु के कोई भी मुक्ति नहीं पा सकता है..गुरु ही ब्रह्मा रूप है..उसी कि सर्वात्मना भक्ति करनी चाहिए..उसको तथा उसके चित्रों को पूजना चाहिए
   भक्त लोग अपने गुरु की नाना प्रकार की चामत्कारिक कल्पित बातें लोगों को जा-जाकर सुनाते हैं..विशेषतः स्त्रीयों को प्रभावित करते हैं और सरलता से उनको चेला-चेली बनाकर अपने पंथ का विस्तार करते हैं
   जब एक व्यक्ति अवतार बनकर जनता को ठगकर अपने सम्प्रदाय द्वारा अपना उल्लू सीधा करने में सफल हो जाता है तो दूसरे ठग भी उसी की नक़ल करके अपने को अवतार बनाकर अपने-अपने सम्प्रदाय चालु करने को उत्साहित होते हैं..ये लोग स्वयं तथा इनके चेले लोग अपने सम्प्रदाय के गुरु को जीवनदाता,कल्याणप्रदाता सर्वदुख तारक,साक्षात मोक्ष देने वाला बताते है..उसकी श्रेष्ठता का पाठ जनता को पढ़ाते हैं , उसकी प्रशंसा में मिथ्या महात्म्य लिख-लिखकर उसके गौरव की धाक चेले-चेलियों पर जमाते है..और उन्हें अपना सर्वस्व गुरूजी को अर्पण कर देने का पाठ पढ़ाते हैं इनके रटे  हुए व्याख्यानों को सुन-सुनकर साधारण बुद्धिमानों की कौन कहे बड़े-बड़े भी बहक जाते हैं..रोगों से मुक्ति,मुकद्दमों में विजय,शत्रुओं का नाश,धनवान ,पुत्रवान बनने की कामनाएँ भक्तों की गुरु सेवा व उसके प्रसाद से होने की बनावटी दृष्टान्तों सहित कथाएँ जब इनके प्रचारक जनता को सुनाते हैं तो परेशान लोग यह सोचकर कि शायद हमारा भी कल्याण हो जाये ,उनकी बातों पर विशवास करके उनके गुरूजी के चेले बन जाते है..विशेषतः भोली-भाली स्त्रियाँ उनके जाल में सुगमता से फंस जाती हैं,और अपना तन,मन,धन सर्वस्व गुरूजी को दे बैठती हैं..गुरूजी का ४२० का जीवन इन पाखंडों से आनंद के साथ बीतता है..उनके हथकंडों से उन्हें सारे भोग सुगमता से प्राप्त हो जाते है तथा अज्ञानी चेले-चेली व भक्तजन लुटते व मूर्ख बनकर अपने भाग्य पर रोया करते है.

 हम आगे कुछ इन ढोंगी गुरुओं के जाली माहात्म्य के प्रमाण उपस्थित करते हैं , जिनसे पाठक इनके ढकोसला फैलाने के हथकण्डों को समझ सकेंगे । विद्वानों का कर्तव्य है कि वे इन सारे सम्प्रदायों का , उनके पाखण्डों का खण्डन करें तथा जनता को सत्य वैदिक धर्म का मार्ग प्रदर्शित करें जिससे संसार से मत-मतान्तरों का विनाश होकर मानव धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझ सकें और लोक व् परलोक सुधार सकें ।

गुरुडम के जाली माहात्म्य --

गुरुः ब्रह्मा गुरुः विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः |
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः ||
संसारवृक्षसमारुढा पतन्ति नरकार्णवे |
येनाधृता जनाः सर्वेः तस्मै श्री गुरुवे नमः ||
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् |
तत्पदं दर्शितं येन  तस्मै श्री गुरुवे नमः ||
स्थावरे जङ्गमे व्याप्तं यत् किञ्चित् सचराचरम् |
तत्पदं दर्शितं येन  तस्मै श्री गुरुवे नमः ||
चैतन्यं शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निरञ्जनम् |
विन्दुनादकलातीतं  तस्मै श्री गुरुवे नमः ||
यस्य स्मरणमात्रेण ज्ञान मुत्पदायेत् स्वयम् |
सर्वदा सर्वसम्पत्तिः  तस्मै श्री गुरुवे नमः ||
सर्वशक्तिसमायुक्तं तत्त्वज्ञानविभूषितम् |
भक्तिमुक्तिप्रदातारं  तस्मै श्री गुरुवे नमः ||
नाशनमात्रपापानां दीपनां ज्ञानसम्पदाम् |
यस्य पादोदकं पेयं  तस्मै श्री गुरुवे नमः ||
ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोः कृपा ||
श्रीमत्परं ब्रह्म गुरुं नमामि श्रीमत्परं ब्रह्म भजामि |
श्री मत्परं ब्रह्म गुरुं जपामि श्री मत्परं ब्रह्म गुरुंस्मरामि ||
  -- ( गुरुप्रसाद पत्र मार्च सन् 1962 से )

अर्थ :- गुरु ही ब्रह्मा , विष्णु , महादेव है । वही परब्रह्म है । उसे ही मैं नमस्कार करता हूँ ।
संसाररूपी वृक्ष पर सवार मनुष्य नरक के सागर में गिरते हैं । उनका उद्धार गुरु ही करते हैं अतः उस गुरूजी को नमस्कार है ।
अखण्ड मण्डलाकार विश्व में व्याप्त परमेश्वर है , उस चराचर में व्याप्त पद दिखानेवाला गुरु है , उस गुरु को नमस्कार है ।
सम्पूर्ण जड़ व् चैतन्य जगत में व्याप्त जो ब्रह्म है उस पद को दिखानेवाले गुरु को नमस्कार है ।
गुरु ही चैतन्य है , नित्य है , शान्त है , आकाश से भी महान है , निरंजन है , विन्दु ओंकार उसका नाद है , वह सम्पूर्ण कलाओं से भी परे है । उस गुरु को नमस्कार है ।
जिसके स्मरण मात्र से स्वयं सम्पूर्ण ज्ञान विज्ञान का भक्त में उदय हो जाता है वही सर्वदा सब से बड़ी महान सम्पत्ति है । उस गुरु को नमस्कार है । 
सारी शक्तियाँ जिसमे हैं , जो तत्त्वज्ञान से विभूषित है जो भक्ति और मुक्ति को देनेवाला है उस गुरु को नमस्कार है ।
जो सारे पापो को नष्ट करनेवाला है और ज्ञानरूपी सम्पत्ति का प्रदाता है , जिसके चरणों का धोवन अमृत है , उसी गुरु देव को नमस्कार है ।
ध्यान करने के लिए गुरु की प्रतिमा है , मोक्ष का मूल केवल गुरु की कृपा है , सम्पूर्ण श्लोकों का मूल ( सार ) केवल गुरु का वाक्य तथा मोक्ष का आधार केवल गुरु की कृपा है । इसलिए मैं श्रीमान परब्रह्म गुरु का ही भजन करता हूँ । श्रीमान परब्रह्म गुरूजी का ही जप करता हूँ , श्रीमान परब्रह्म गुरूजी का ही स्मरण करता हूँ ।

गुरु पूजा माहात्म्य 

श्री गुरुं प्राकृतै सार्धं ये स्मरन्ति वदन्ति वा |
तेषां हि सुकृतां सर्वं पातकं भवति प्रिये ||
जन्महेतुः हि पितरौ पूजनीयौ प्रयत्नतः |
गुरुः विशेषतः पूज्यो धर्माधर्मप्रदर्शकः |
गुरुः पिता गुरुर्माता गुरुर्देवो गुरुर्गतिः |
शिवे रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन ||
गुरोर्हितं हि कर्तव्यं मनो वा क्वाथ कर्मभिः |
आहिताचरणाद्येवि विष्ठायां जपते कृमिः ||
शरीरवित्तनाशश्च श्री गुरुंवञ्चयन्ति ये |
कृमिकीटपतङ्गत्वं प्राप्नुवन्ति न संशयः ||
गुरुर्त्यागाद् भवेन्मृत्युः मन्त्रत्यागाद् दरिद्रता |
गुरुमन्त्रपरित्यागाद् रौरवनरकं व्रजेत् ||
गुर्वर्थं धारयेद् देहं गुर्वर्थं धनमर्जयेत् |
निजप्राणन् परित्यज्य गुरुकार्यं समाचरेत् ||
भोगभोज्यानि वस्तूनि गुरवे च समर्थयेत् |
स्वशास्त्रोक्तरह्स्याद्यं न वदेद् यस्य कस्यचित् ||
श्रीगुरुनिन्दास्यात् पिधाय श्रवणे अम्बिके |
सद्यस्तस्मादुपक्रामेद् दूरं न श्रणुयाद् यथा ||
श्रीगुरु श्रीपादुकापूजा गुरुर्नामिस्तुतिर्जपः |
गुर्वाज्ञाकरणं कृत्यं शुश्रूषसा भजनं गुरोः ||
ब्रह्महत्या शतं कुर्याद् गुर्वाज्ञां प्रतिपाल येत् ||
-- ( कुलार्णवतन्त्र उल्लास 12 )

अर्थ :- जो लोग गुरु को स्वभावत स्मरण करते व् दान का यशोगान करते हैं , उनके सारे पाप भी पुण्य में बदल जाते है ।
जन्म का कारण होने से माता-पिता की यत्न से पूजा करनी चाहिए , किन्तु धर्म-अधर्म का मार्गदर्शक होने से गुरु विशेष रूप से पूजनीय होता है ।
गुरु ही पिता , गुरु ही माता , गुरु ही गति है ।शिवजी के नाराज होने से गुरु रक्षा करता है , किन्तु गुरु के अप्रसन्न होने पर कोई बचानेवाला नहीं है ।
मनसा वाचा कर्मणा गुरु के हित का काम करे । गुरु का अहित करनेवाले हे देवि ! विष्ठा का कीड़ा बनता है ।
जो लोग गुरु के शरीर से अथवा धन हरण करके कष्ट पहुँचाते हैं वे निश्चयपूर्वक कृमि , कीट व् पतंगे बनते हैं ।
गुरु को त्यागने से मृत्यु हो जाती है , मन्त्र को त्यागने से दरिद्रता होती है , गुरु और मन्त्र दोनों को त्यागने से घोर रौरव नरक को जाता हैं ।
गुरु के लिए ही देह धारण करे , गुरु के लिए ही धन पैदा करे । अपने प्राणों को त्याग कर भी गुरु के कार्य को करना चाहिए ।
समस्त भोग्य पदार्थ तथा समस्त खाने के पदार्थों को गुरु को अर्पण कर देवे । अपने शास्त्र के रहस्य ( गुप्त बातों ) को कभी भी किसी को न बतावे ।
हे पार्वती ! गुरु की निन्दा की बात कभी भी कानों से न सुनें । जहाँ ऐसी बात होती है वहाँ से दूर चला जावे ।
श्री गुरु की खड़ाऊँ की पूजा , गुरु के नाम का जप और स्मरण ही कर्तव्य है । गुरु की आज्ञा ही आचरणीय है , गुरु की सेवा ही गुरु का भजन करना है ।
चाहे सैकड़ों ब्राह्मणों की हत्याएँ करनी पड़ें तो अवश्य करे । पर गुरु की आज्ञा का पालन अवश्य करना चाहिए , उसका उल्लंघन कदापि न करें ।

इसी प्रकार के पचासों गुरुडम के झूठे ठगी के माहात्म्य गुरुडम पंथी लोगों ने बनाकर छापकर प्रचारित कर रखे हैं । जिसके मन में आता है वही गुरु या अवतार बनकर बैठ जाता है । उसके भाड़े के चेले-चेलियाँ उसका प्रचार करके उसके सम्प्रदाय को चला देते हैं । अन्धविश्वासी जनता इन चतुर ठगों के चक्कर में धर्म के नाम पर फँसकर बुरी तरह ठगी जाती है ।
अवतारवाद का सारा सिद्धांत ही जाली है और गीता ने स्वयं इस जाली सिद्धांत का समर्थन करके भारतवर्ष की हिन्दू जाति को मूर्ख बनाया है । सारा गुरुडम और सारे जाली अवतारों की भूमिका तथा आधार गीता के दो प्रसिद्ध श्लोक हैं -----

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
अभ्युत्थानामधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||   
---- गीता  4 / 7-8 

अर्थात -- जब-जब धर्म की ग्लानि होती है तब-तब मैं धर्म के उत्थान , साधुओं की रक्षा तथा दुष्टों के विनाश के लिए अवतार लिया करता हूँ ।

  यह सार पाखण्ड तथा विष इन्ही श्लोकों के आधार पर फैला है । मुसलामानों में कोई दूसरा पैगम्बर नहीं बन सकता है , ईसाइयों 
में कोई खुदा का बेटा  नहीं बन सकता है । पर इस कमबख्त हिन्दू कौम में जो जी चाहता है अवतार बन जाता है , स्वयं परमात्मा  , "ब्रह्म" बन बैठता है ।
कोई रोकनेवाला नहीं है ।


 (  साभार :- आचार्य डॉ.श्रीराम आर्य कृत "गुरुडम के पाखण्ड" से  )

Monday, 20 May 2013

On Theism : The world cannot be formed without a Supreme Intelligence


From Flint's - Theism 

Besides how could matter of itself produce order , even if it were self-existent and eternal ? It is far more unreasonable to believe that the atoms or constituents of matter produced of themselves , without the action of a supreme mind , this wonderful universe , than the letters of the English alphabet produced the plays of Shakespeare , without the slightest assistance from the human mind known by that famous name . These atoms might perhaps now and then at great distance and long intervals , produce , by a chance contact some curious collocation or compound but never could they produce character , unless ordered ; arranged and adjusted in ways of which intelligence alone can be the ultimate explanation . To believe that their fortuitous and undirected movements could originate the universe , and all the harmonies and utilities and beauties which abound in it evinces a credulity far more extravagant than has been ever displayed by the most superstitious of religionists  yet no consistent materialist can refuse to accept this colossal chance-hypothesis . All the explanations of the order of the elements of matter being eternal , must pass through infinite combinations and that one of these must be our present world --- a special collection among the countless millions of collections , past and future . Throw the letters of the Greek alphabet , it has been said , an infinite number of times and you must produce the Illiad and all Greek books , The theory of probabilities , I need hardly say , requires us to believe nothing so absurd . Throw letters together , without thought , through all eternity , the letters might have been tossed and jumbled together from morning to night by the hands of the whole human race , from the beginning of the world until now , and the first line of the Illiad would have been still uncomposed , had not the genius of Homer been inspired to sing the worth of Achilles and the war around Troy .
But ....what is Illiad to the hymn of creation , and the drama of Providence ? Were these glorious works composed by mere jumbling together of atoms , were not even prepared before hand to form things , as letters are to form words , and which had to shake themselves into order without the help of any hand ?
They may believe that , who can . 
It seems to me that it ought to be much easier to believe all the Arabian Nights .

Monday, 25 March 2013

बौद्ध धर्म से फैली नास्तिकता का भयंकर परिणाम -- वाम मार्ग , जन्त्र-तन्त्र व् पाखण्ड का प्रचार


नास्तिकता जब बौद्ध सिद्धान्त के नाम से फ़ैल गई तो उसका जो परिणाम हुआ उसे हम अपने शब्दों में न लिखकर श्री राहुल सांकृन्तायन के शब्दों में रखना उचित समझते हैं | अपनी  "बुद्धचर्या"  की भूमिका में वे लिखते है -----

"कनिष्क के काल में पहले पहल बुद्ध की प्रतिमा ( मूर्ति ) बनाई गई | महायान के प्रचार के साथ जहाँ बुद्ध प्रतिमाओं की पूजा अर्चना बड़े ठाट -बाट से होने लगी , वहाँ सैकड़ों बोधिसत्वों की भी प्रतिमायें बनने लगीं | इन बोधिसत्वों को उन्होंने ब्राह्मणों के देवी देवताओं का काम सौंपा | उन्होंने तारा , प्रज्ञा पारमिता , विजया आदि अनेक देवियों की भी कल्पना की | जगह-जगह इन देवियों और बोधिसत्वों के लिए बड़े-बड़े विशाल मन्दिर बन गये | इनके बहुत से स्तोत्र आदि भी बनने लगे | इस बाढ़ में इन्होंने यह ख्याल न किया कि हमारे इस काम से किसी प्राचीन परम्परा या किसी भिक्षु नियम का उल्लंघन होता है | जब किसी ने दलील पेश की तो कह दिया -- विनय नियम तुच्छ स्वार्थ के पीछे मरनेवाले हीनयानियों के लिए हैं , सारी दुनियाँ की मुक्ति के लिये मरने-जीनेवाले बोधिसत्व को इस की वैसी पाबन्दी नहीं हो सहती | उन्होंने हीनयान के सूत्रों से अधिक महात्म्यवाले अपने सूत्र बनाये | सैकड़ों पृष्ठों के सूत्रों का पाठ जल्दी नहीं हो सकता था इसलिये उन्होंने हर एक सूत्र की दो तीन पंक्तियों में छोटी-छोटी धारणी बनाई | इन्हीं धारणियों को और संक्षिप्त करके मन्त्रों की सृष्टि हुई | इस प्रकार धारणियों , बोधिसत्वों , उनकी अनेक दिव्य शक्तियों तथा प्राचीन परम्परा और पिटक की निस्संकोच की जाती -- उलट-पुलट से उत्साहित हो , गुप्त साम्राज्य के आरम्भिक काल से हर्षवर्धन के समय तक मञ्जु श्री मूल कल्प , गुह्य समाज और चक्र संवर आदि कितने ही तंत्रों की सृष्टि की गई | पुराने निकायों ने अपेक्षाकृत सरलता अपनी मुक्ति के लिये अर्हद् यान और प्रत्येक बुद्धयान का रास्ता खुला रखा था | महायान ने सबके लिये सुदुश्चर बुद्धयान का ही एकमात्र रास्ता रखा | आगे चलकर कठिनाई को दूर करने के लए ही उन्होंने धारणियों , बोधिसत्वों की पूजाओं का आविष्कार किया | इस प्रकार जब आसान दिशाओं का मार्ग खुलने लगा , तब उसके अविष्कारकों की भी संख्या बढ़ने लगी | मञ्जु श्री मूल कल्प ने तन्त्रों के लिये रास्ता खोल दिया | गुह्य समाज ने अपने भैरवी चक्र के शराब , स्त्री सम्भोग तथा मंत्रोच्चारण से उसे और भी आसान कर दिया | यह मत महायान के भीतर से ही उत्पन्न हुआ , किन्तु पहले इसका प्रचार भीतर ही भीतर होता रहा | भैरवी चक्र की सभी कार्यवाहियाँ गुप्त रखी जाती थीं | प्रवेशाकांक्षी को कितने ही समय तक उम्मीदवारी करनी पड़ती थी | यह मन्त्रयान ( तन्त्रयान , वज्रयान ) सम्प्रदाय इस प्रकार सातवीं शताब्दी तक गुप्तरीति से चलता रहा | इसके अनुयायी बाहर से अपने को महायानी ही कहते थे | महायानी भी अपना पृथक विनय पिटक नहीं बना सके थे इसलिये इनके भिक्षु लोग सर्वास्तिवाद आदि निकायों में में दीक्षा लेते थे | आठवीं शताब्दी में भी , जबकि नालन्दा महायान का गढ़ थी , वहाँ के भिक्षु सर्वास्तिवाद विनय के अनुयायी थे | तन्त्र के प्रचुर प्रचार से भिक्षुओं को सर्वास्तिवाद को , बोधिसत्वचर्या में महायान की और भैरवी चक्र में वज्रयान की दीक्षा लेनी पड़ती थी | 
आठवीं शताब्दी में एक प्रकार से भारत के सभी बौद्ध सम्प्रदाय वज्रयान गर्भित महायान के अनुयायी हो गए थे | बुद्ध की सीधी-सीधी शिक्षाओं से उनका विश्वास उठ चुका था और वे मनघड़ंत हजारों लोकोक्तर कथाओं पर विश्वास करते थे | बाहर से भिक्षु के कपड़े पहनने पर भी वे भीतर से गुह्य समाजी थे | बड़े-बड़े विद्वान और प्रतिभाशाली कवि आधे पागल हो , चौरासी सिद्धों में दाखिल हो सन्ध्या भाषा में निर्गुण गान करते थे | सातवी शताब्दी में उड़ीसा के राजा इन्द्रभूति और उसके गुरु सिद्ध अनङ्ग वज्र तथा दूसरे पण्डित सिद्ध , स्त्रियों को ही मुक्तिदात्री प्रज्ञा , पुरुषों को ही मुक्ति का 'उपाय' और शराब को ही अमृत सिद्ध करने में अपनी पण्डिताई और सिद्धाई खर्च कर रहे थे | आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक का बौद्ध धर्म  वस्तुतः वज्रयान या भैरवी चक्र का धर्म था | महायान ने ही धारणियों और पूजाओं से निर्वाण को सुगम कर दिया था , वज्रयान ने उसे एकदम सहज कर दिया इसलिए आगे चलकर वज्रयान -"सहजयान"-भी कहा जाने लगा | " 
"वज्रयान के विद्वान प्रतिभाशाली कवि चौरासी सिद्ध ........लोग शराब में मस्त , खोपड़ी का प्याला लिए श्मशान या विकट जंगलों में रहा करते थे | जन साधारण को जितना ये फटकारते थे उतना ही लोग इनके पीछे दौड़ते थे | ये "सिद्ध" लोग खुल्लमखुल्ला स्त्रियों औए शराब का उपभोग करते थे | राजा अपनी कन्याओं तक को इन्हें प्रदान करते थे |..........इन पाँच शताब्दियों में धीरे-धीरे एक तरह से सारी भारतीय जनता इनके चक्कर में पड़कर काम व्यसनी , मद्यप और मूढ़ विश्वासिनी बन गई थी | राजा लोग जहाँ राजरक्षा के लिये पलटनें रखते थे वहाँ उसके लिये किसी सिद्धाचार्य तथा उसके सैकड़ों तान्त्रिक अनुयायियों की भी एक बहु व्यय -साध्य पलटन रखा करते थे | देव मन्दिरों में बराबर ही बलि पूजा चढ़ती रहती थी | लाभ-सत्कार द्वारा उन्युक्त होने से ब्राह्मणों और दूसरे धर्मानुयायियों ने भी बहुत अंश में इनका अनुसरण किया | "

अन्धविश्वास इतना !!! -- " भारतीय जनता जब इस प्रकार दुराचार और मूढ़ विश्वास के पंक में कंठ तक डूबी हुई थी | ब्राह्मण भी जाति भेद के विष बीज को शताब्दियों तक बोकर , जाती टुकड़े-टुकड़े बाँटकर घोर गृह कलह पैदा कर चुके थे | .............तुर्कों ने मन्दिरों की अपार सम्पत्ति को ही नहीं लूटा , बल्कि अगणित दिव्य शक्तियों की मालिक देव मूर्तियों को भी चकनाचूर कर दिया | तान्त्रिक लोग , मन्त्र , बलि और पुरश्चरण का प्रयोग करते ही रह गये | किन्तु उससे तुर्कों का कुछ नहीं बिगड़ा | ............जिस विहार के पालवंशी राजा ने राज्य रक्षा के लिये उडंत पुरी का तान्त्रिक विहार बनाया था उसे मुहम्मद बिन बख्त्यार उद्दीन ( मुहम्मद बिन बख्त्यार ) ने सिर्फ दो सौ घुड़सवारों से जीत लिया | नालन्दा की अद्भुत शक्तिशाली तारा टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दी गई | नालन्दा और विक्रमशिला के सैकड़ों तान्त्रिक भिक्षु तलवार के घाट उतर दिये गये |".......

राहुलजी का रक्तरोदन -- " लेकिन प्रश्न होता है कि तुर्कों ने तो बौद्धों और ब्राह्मणों , दोनों के ही मन्दिरों को तोड़ा , पुरोहितों को मारा , फिर क्या वजह है जो ब्राह्मण भारत में अब भी है और बौद्ध न रहे | बात यह है कि ब्राह्मण धर्म में गृहस्थ भी धर्म के अगुआ हो सकते थे , बौद्ध भिक्षुओं पर ही धर्म प्रचार और धार्मिक ग्रंथों की रक्षा का भार था | ब्राह्मणों में भी यद्यपि वाममार्गी थे किन्तु सभी नहीं | बौद्धों में तो सब वज्रयानी थे | इनके भिक्षुओं की प्रतिष्ठा उनके सदाचार और विद्या पर न थी , बल्कि उनके तथा उनके मन्त्रों और देवताओं की अद्भुत शक्तियों पर थी | तुर्कों की तलवारों ने इन अद्भुत शक्तियों का दिवाला निकाल दिया | जनता समझने लगी ; हम धोखे में थे | इसका फल यह हुआ कि जब बौद्ध भिक्षुओं ने अपने टूटे मठों और मन्दिरों को फिर से मरम्मत कराना चाहा तब इनके लिये इन्हें रूपये नहीं मिले | वस्तुतः इन आचारहीन शराबी भिक्षुओं को उस समय -- जबकि तुर्कों के अत्याचार के कारण लोगों को एक-एक पैसा बहुमूल्य प्रतीत होता था -- कौन रुपयों की थैली सौंपता ? फल यह हुआ कि बौद्ध अपने टूटे धर्मस्थलों की मरम्मत कराने में सफल न हो सके और इसप्रकार उनके भिक्षु अशरण हो गये |
ब्राह्मणों में यह बात न थी | उनमे सबके सब वाममार्गी न थे | कितने ही अब भी अपनी विद्या और आचरण के कारण पूजे जाते थे | इसलिए उन्हें फिर अपने मन्दिरों को बनवाने के लिये रूपये मिल गये |".......

श्री राहुल सांकृन्तायन जी स्वयं अपने को बौद्धमत अनुयायी कहते हैं अतः हमने उनकी - "बुद्धचर्या" - की भूमिका से यह विस्तृत उद्धरण यह दिखाने के लिये दिया है कि बौद्धमत के नाम से नास्तिकता का प्रचार होने पर उसका नैतिक दृष्टि से कैसा भयंकर परिणाम हुआ | जिस बौद्धमत के विषय में यह दावा किया जाता है कि उससे अधिक सदाचार का प्रतिपादक कोई धर्म नहीं , उसमे श्री राहुल जी के ऊपर उद्धृत लेखानुसार सबके सब वज्रयानी व् वाममार्गी , शराबी बन जाएँ और उनके व्यभिचार तथाकथित सिद्धों का इतना अधिक मान हो इसके कारण पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है | हमारे विचार में तो इस नैतिक पतन का कारण स्पष्ट है | जब कर्म फलदाता न्यायकारी परमेश्वर की सत्ता पर कोई विश्वास न हो , जब नित्य आत्मा की सत्ता पर विशवास न हो , जब धर्म के लिये मुख्य प्रमाण वेदों पर विशवास न हो तो उसका स्वाभाविक परिणाम स्वेच्छाचारिता और नैतिक पतन है | इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं |

( -- विद्यामार्तण्ड स्वामी धर्मानन्द ) 

Sunday, 17 February 2013

गुरुडम के पाखण्ड


 भारतवर्ष की प्रजा स्वभाव से धर्म की ओर विशेषरूप से आकृष्ट रहती है..इस देश के निवासियों की परमात्मा के प्रति स्वभाविक आस्था होती है..प्रत्येक मनुष्य यहाँ मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है..वह आवागमन के चक्र से छूटने के लिए निरंतर संघर्ष रत देखा जाता है..क्योंकि इस देश का निवासी यह जानता है कि उसे निजकर्मानुसार पशु,पक्षी,कीट,पतंगादि की योनियों में भ्रमण करना पड़ता है..यह मानव जन्म उसे बड़े सौभाग्य से प्राप्त होता है..अतः जीवन चक्र के कष्टों से यदि वह छूटकर परमात्मा के अपार आनंद का उपभोग करने लिए प्रयत्न कर सकता है तो इसी मानव योनि में ही कर सकता है , अतः इस पवित्र भूमि का प्रत्येक राम-कृष्ण का वंशज अपने को माननेवाला नागरिक परमेश्वर की भक्ति करने में रूचि रखता है , क्योंकि उसे बताया जाता है कि मोक्ष केवल परमात्मा की कृपा से संभव होता है...मोक्ष क्या है ? और वह किस प्रकार मिलता है इस विषय पर संसार के सभी मतवादियों ने विचार किया है और सभी ने विभिन्न प्रकार के मार्ग उसके लिए बताये है..वैदिक धर्म संसार का सर्वप्राचीन सृष्टि के आदि काल में परमात्मा प्रदत्त वेद ज्ञान के आधार पर सत्य धर्म है,उसमे मोक्ष के विषय में बताया गया है कि मुक्ति केवल योगियों को "वेदज्ञधीर" व्यक्तियों को ही प्राप्त होती है..इसके लिए निम्न वेद मन्त्र द्रष्टव्य है--
        वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्  !
        तमेव विदित्वाति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यते अयनाय  !!     ( यजुर्वेद  ३१ / १८ )
   अर्थात मोक्ष प्राप्ति का केवल एक ही मार्ग है कि परमेश्वर को जाना जाये कि अन्धकार से परे ज्ञानस्वरूप एवं प्रकाशरूप महान सर्वव्यापक सत्ता है..इसके अतिरिक्त अन्य मार्ग मोक्ष का नहीं है.
   परमेश्वर को जानने के लिए मनुष्य को पूर्ण सदाचारी,यम-नियमों का पालन करनेवाला पूर्ण योगी होना आवश्यक है..क्योंकि परमात्मा पंचभूतों का कार्य न होने से पञ्च ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा नहीं जाना जाता , बल्कि समाधिस्थ अवस्था में अनुभव किया जाता है..जो कि बिना योगाभ्यास के किसी भी प्रकार संभव नहीं है..पूर्ण योगी जब समाधिस्थ होता है,उसका बाह्य जगत से सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है तो आनंद रूप से परमेश्वर की प्राप्ति होती है , वह प्रभु के आनंद में तन्मय हो जाता है..इस प्रकार दीर्घकाल तपस्या करते-करते अंत में जब योगी भौतिक शरीर का त्याग करता है तो वह प्राणों को आकर्षित करके सुषुम्णा नाड़ी के मार्ग से सर के उस स्थान से (द्वार से) जिसे ब्रह्म-रंध्र कहते है और जहाँ इस नाड़ी का अंत होता है तथा जहाँ तक शिखा रखी जाती है , वहाँ से निकालकर भौतिक देह को त्याग कर परमात्मा से सायुज्य स्थापित कर लेता है..जैसे कि उपनिषत्कार ने लिखा है--
      " सूर्यद्वातेण ते विरजाः प्रयान्ति "
   अर्थात योगी सूर्य नाड़ी के मार्ग से प्राणों का उत्सर्ग करके मोक्ष को प्राप्त करते है..श्री कृष्णजी के उपदेशों के नाम से बाद को गढ़ी पुस्तक गीता में उसके लेखक ने भी इसी बात का प्रतिपादन स्पष्ट शब्दों में किया है--
       प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्विषः  !
       अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्  !!    ( गीता  ६ / ४५ )
   अर्थात अनेक जन्मों से सिद्धि को प्राप्त हुआ और अति प्रयत्न से योगाभ्यास करनेवाला योगी पुरुष सम्पूर्ण पापों से शुद्ध होकर उस साधन के प्रभाव से परमगति ( मोक्ष ) को पाप्त होता है
   इससे स्पष्ट है कि मोक्ष पाना सरल कार्य नहीं है..यह केवल ब्रह्मवेत्ता योगी लोगों के लिए ही संभव है..किन्तु इस तथ्य को न समझकर अनेक लोगों ने मोक्षाभिलाषी जनता को अनेक प्रकार के सरल मार्ग अपनी कल्पना से स्वार्थवश बताकर सत्य से विमुख बनाया है, और इसी आधार पर नाना प्रकार के सम्प्रदायों की सृष्टि संसार में हुई है
   ईसाई मत में ईसामसीह पर ईमान लाना और क़यामत के दिन ईसा की सिफारिश से मुक्ति मिलने का विधान है..मुसलमानों में इस्लाम,कुरान,खुदा और मुहम्मद पर ईमान लाना और क़यामत के दिन मुहम्मद साहब की सिफारिश से मुक्ति मिलने की व्यवस्था है ..बौद्ध मत में भगवान् बुद्ध ही मुक्तिदाता माने गये है..जैन मत में तीर्थंकारों की मूर्ती की उपासना,सम्यक दर्शन,सम्यक आचरण से मुक्ति मानी गयी है..कबीर मत में कबीरदास ही मुक्तिदाता है..शैव मत में शिवजी,वैष्णव मत में विष्णु ,शाक्त मत में देवी की उपासना व उनकी मूर्ती पूजा करने से मुक्ति मिलती है
   जिस-जिस सम्प्रदाय को जिस-जिस व्यक्ति ने चलाया , उस सम्प्रदाय में उसी व्यक्ति को परमात्मा मानकर उसकी पूजा का विधान जारी हो गया है और उसे ही उसके भक्तों ने मुक्तिदाता परमेश्वर मान लिया है..हमारे देश में आज भी कई नये-नये पंथ जारी हो रहे हैं,चतुर लोगों ने स्वयं को परमात्मा का अवतार बता कर जनता को बहका रखा है..यह गुरुडमवाद हमारे देश के लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध हो रहा है..जनता को बताया जाता है कि गुरु ही साक्षात परमेश्वर होता है..बिना गुरु के कोई भी मुक्ति नहीं पा सकता है..गुरु ही ब्रह्मा रूप है..उसी कि सर्वात्मना भक्ति करनी चाहिए..उसको तथा उसके चित्रों को पूजना चाहिए
   भक्त लोग अपने गुरु की नाना प्रकार की चामत्कारिक कल्पित बातें लोगों को जा-जाकर सुनाते हैं..विशेषतः स्त्रीयों को प्रभावित करते हैं और सरलता से उनको चेला-चेली बनाकर अपने पंथ का विस्तार करते हैं
   जब एक व्यक्ति अवतार बनकर जनता को ठगकर अपने सम्प्रदाय द्वारा अपना उल्लू सीधा करने में सफल हो जाता है तो दूसरे ठग भी उसी की नक़ल करके अपने को अवतार बनाकर अपने-अपने सम्प्रदाय चालु करने को उत्साहित होते हैं..ये लोग स्वयं तथा इनके चेले लोग अपने सम्प्रदाय के गुरु को जीवनदाता,कल्याणप्रदाता सर्वदुख तारक,साक्षात मोक्ष देने वाला बताते है..उसकी श्रेष्ठता का पाठ जनता को पढ़ाते हैं , उसकी प्रशंसा में मिथ्या महात्म्य लिख-लिखकर उसके गौरव की धाक चेले-चेलियों पर जमाते है..और उन्हें अपना सर्वस्व गुरूजी को अर्पण कर देने का पाठ पढ़ाते हैं इनके रटे  हुए व्याख्यानों को सुन-सुनकर साधारण बुद्धिमानों की कौन कहे बड़े-बड़े भी बहक जाते हैं..रोगों से मुक्ति,मुकद्दमों में विजय,शत्रुओं का नाश,धनवान ,पुत्रवान बनने की कामनाएँ भक्तों की गुरु सेवा व उसके प्रसाद से होने की बनावटी दृष्टान्तों सहित कथाएँ जब इनके प्रचारक जनता को सुनाते हैं तो परेशान लोग यह सोचकर कि शायद हमारा भी कल्याण हो जाये ,उनकी बातों पर विशवास करके उनके गुरूजी के चेले बन जाते है..विशेषतः भोली-भाली स्त्रियाँ उनके जाल में सुगमता से फंस जाती हैं,और अपना तन,मन,धन सर्वस्व गुरूजी को दे बैठती हैं..गुरूजी का ४२० का जीवन इन पाखंडों से आनंद के साथ बीतता है..उनके हथकंडों से उन्हें सारे भोग सुगमता से प्राप्त हो जाते है तथा अज्ञानी चेले-चेली व भक्तजन लुटते व मूर्ख बनकर अपने भाग्य पर रोया करते है.

  (  साभार :- आचार्य डॉ.श्रीराम आर्य कृत "गुरुडम के पाखण्ड" से  )