Wednesday, 3 October 2012

नासदीय सूक्त ------ ( ऋग्वेद - १० - १२९ - १ , २ , ३ , ४ , ५ , ६ , ७ )


1 ) नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्  | 
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद् गहनं गभीरम्  ||

( तदानीम् ) तब प्रलयावस्थामें ( असत् + न + आसीत् ) अभाव नहीं था ( नो + सत् + आसीत् ) भाव भी नहीं था अर्थात उस अवस्था में व्यक्ताव्यक्त कुछ भी प्रतीत नहीं होता था ( रजः + न + आसीत् ) लोक-लोकान्तर भी न थे | " लोका रजान्स्युच्यन्ते " ( निरुक्त ४-१९ ) लोकों का नाम रज है ( व्योम + नो ) आकाश भी नहीं था ( परः + यत् ) आकाश से भी पर यदि कुछ हो सकता है तो वह भी नहीं था ( कुह ) किस देश में ( कस्य + शर्मन् ) किस के कल्याण के लिये ( किम + आवरीवः ) कौन किस को आवरण करे | इस लिये आवरण भी नहीं था ( किम् ) क्या ( गहनम् ) ( गभीरम् ) गभीर ( अम्भः ) जल ( आसीत् ) था ? नहीं |

व्याख्या -- इस प्रथम ऋचा में व्यक्त संसार के अस्तित्व का निषेध करते हैं | प्रलयावस्था में असत् या सत् कुछ प्रतीत नहीं होता था | कोई लोक वा यह दृश्यमान आकाश भी प्रतीत नहीं होते थे | अत्यन्त गभीर जलादिक भी नहीं था | जब कुछ नहीं था तो उसका आवरण भी नहीं था | यह प्रत्यक्ष है कि बीज की रक्षा के लिये आवरण हुआ करता है | इसी प्रकार गेहूँ , यव , चने आदि पदार्थों में आवरण होते हैं | जब आच्छाद्य नहीं था , तब आच्छादक का भी अभाव था ( आ + अवरीवः ) यह 'वृ'धातु से यड्लुगन्त में लड् लकार का रूप है |



2 ) न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत् प्रकेतः  |
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किञ्चनास  ||

( न + मृत्युः + आसीत् ) न मृत्यु थी ( न + तर्हि + अमृतम् ) न उस समय अमृत था (न + रात्र्याः + अह्नः ) न रात्रि और दिन का ( प्रकेतः + आसीत् ) कोई चिह्न था | तब उस समय कुछ था , या नहीं ? ब्रह्म भी था , या नहीं ? इस पर कहते हैं कि ( अवातम् ) वायुरहित ( तत् + एकम् ) वह एक ब्रह्म ( स्वधया ) प्रकृति के साथ ( आनीत् ) चेतनस्वरूप विद्यमान था | ( तस्मात् + ह् + अन्यत् ) पूर्वोक्त प्रकृति सहित ब्रह्म के अतिरिक्त ( किञ्चन + न ) कुछ भी नहीं था | अतः  ( परः ) सृष्टि के पूर्व कुछ भी नहीं था | यह सिद्ध होता है |

व्याख्या -- आनीत् --- प्राणनार्थक 'अन' धातु का 'आनीत्' यह रूप है ( अवातम् ) वायुरहित | बिना वायु का वह एक ब्रह्म विद्यमान था | केवल वह एक ही नहीं था , किन्तु स्वधा भी उसके साथ थी |  'स्वधया' यह तृतीय का एकवचन है | सायण स्वधा शब्द का अर्थ माया करते हैं | वास्तव में वेदान्ताभिमत अनिर्वाच्य मायावाची स्वधा शब्द यहाँ नहीं है , किन्तु प्रकृतिवाची यह स्वधा शब्द है | यदि जगत् के मूल कारण का नाम माया अभिप्रेत हो , तो नाममात्र के लिए विवाद करना व्यर्थ है | तब उस मूल कारण का नाम माया यद्वा प्रकृति यद्वा प्रधान , अव्यक्त , अज्ञान , परमाणु इत्यादि कुछ भी नाम रख लें | इस में विवाद व्यर्थ है | किन्तु माया और प्रकृति इत्यादि शब्द की अपेक्षा स्वधा शब्द बहुत उपयुक्त है | क्योंकि स्व = निज सत्ता | जो निज सत्ता को धा = धारण किये हुये विद्यमान हो , उसे स्वधा कहते हैं | "स्वं दधातीति स्वधा" जो अपने को धारण करती है , उसे स्वधा कहते हैं | जैसे परमात्मा की सत्ता बनी रहती है , तद्वत् जड़ जगत् के मूल कारण की भी सत्ता सदा बनी रहती है | इसलिए उसको स्वधा कहते हैं | 'सह युक्तेsप्रधाने ( अ. २-३-१९ ) इस सूत्रानुसार सह [ सहार्थ के योग में स्वधा ] शब्द का तृतीया के एकवचन में स्वधया रूप है | 


3 ) तम आसीतीत्तमसा गूढमग्रेsप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्  |
तुच्छ्येनाम्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम्  ||

( अग्रे + तमः + आसीत् ) सृष्टि के पूर्व तमोवाच्य जगन्मूल कारण प्रधान था और ( तमसा ) उसी तमोवाच्य प्रधान से ( इदम् + सर्वम् ) यह वर्तमानकालिक दृश्यमान सब कुछ ( गूढ़म् ) आच्छादित था , अत एव ( अप्रकेतम् ) वह अप्रज्ञात था | पुनः ( सलिलम् + आः ) दुग्धमिश्रित जल के समान कार्य-कारण में भेदशून्य यह सब था | पुनः ( आभु ) सर्वत्र व्यापक ( यत् ) जो जगन्मूल कारण प्रधान था , वह भी ( तुच्छ्येन ) तुच्छता के साथ अर्थात अव्यक्तावस्था के साथ ( अपिहितम् + आसीत् ) आच्छादित था ( तत् ) वही प्रधान ( एकम् ) एक होकर ( तपसः + महिना ) परमात्मा के तप के महिमा से ( अजायत ) व्यक्तावस्था में प्राप्त हुआ |

व्याख्या -- प्रथम ऋचा में सत् और असत् इन दोनों का विवरण इसलिए किया कि यह दोनों नहीं ज्ञात होते थे | पुनः द्वितीय ऋचा में अमृत इत्यादिकों का अभाव कथन कर उस अवस्था में भी एक परमात्मा की स्वधा के साथ विद्यमानता बतलायी गई अर्थात जगन्मूल कारण जड़ प्रकृति अव्यक्तावस्था में होने से नहीं के बराबर थी , किन्तु उसके साथ सब में चैतन्य देने वाला एक परमात्मा विद्यमान था इत्यादि वर्णन पूर्वोक्त दोनों ऋचाओं में किया गया | अब लोगों को यह सन्देह हो कि जड़ जगत का मूल कारण सर्वथैव शशविषाणदिवत् अविद्यमान था | परमात्मा ने स्वयं इस जगत को अपने सामर्थ्य से बना लिया इत्यादि आशंकाओं को दूर करने के लिए आगे कहा है कि 'तम आसीत्' इत्यादि जगन्मूल कारण अवश्य था और उसी मूल कारण से वर्तमानकालिक यह सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् आच्छादित था अर्थात केवल कारण विद्यमान था , कार्य नहीं | वह कारण भी 'तुच्छयेन' अव्यक्तावस्था से ढका हुआ था , तब परमात्मा की कृपा से एक होकर इस वर्तमानकालिक रूप में परिणत हुआ |
सत्त्व , रज , तम इनकी साम्यावस्था का नाम प्रकृति है | उस प्रकृति के प्रधान , अव्यक्त , और अदृश्य आदिक अनेक नाम हैं | यहाँ वेद में उसी को 'तमः' शब्द से कहा है | वेदान्त में इसी का नाम अज्ञान है क्योंकि वह ज्ञानस्वरूप परमात्मा को भी ढक लेता है | इस विषय का संग्रह मनु जी ने इस प्रकार किया है कि --

आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्  |
अप्रतर्क्यमनिर्देश्यम् प्रसुप्तमिव सर्वतः  ||  ( मनु - १-५ ) 

यह वर्तमानकालीन जगत् प्रलयावस्था में तमोमय , अप्रज्ञात , अलक्षण , अप्रतर्क्य , अनिर्देश्य और मानो सर्वत्र प्रसुप्त था | जब जीवों के कर्म फलोन्मुख होते हैं , तब परमेश्वर की सृष्टि करने की इच्छा होती है | यह ईश्वरीय सिसृक्षा ( सृष्टि करने की इच्छा ) ही तप कहलाती है और उसी तप की महिमा से वह कारण रूप जड़ प्रधान मानो एक रूप होकर परिणत होने लगता है , तब उससे क्रमपूर्वक महदादि सृष्टि होती है |


4 ) कामस्तदग्रे समवर्त्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत्  |
सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा  ||

( तदग्रे ) उस सृष्टि के पूर्व ( कामः + समवर्त्तत ) ईश्वरीय कामना थी ( यत् ) जो ( मनसः + अधि ) अन्तःकरण का ( प्रथमम् + रेतः ) प्रथम बीजस्वरूप ( आसीत् ) था | ( कवयः ) बुद्धिमान ऋषि प्रभृति ( मनीषा ) अपनी सात्विक बुद्धि से ( असति ) विनश्वर ( हृदि + प्रतीष्य ) हृदय में विचार ( सतः + बन्धुम् ) अविनश्वर सद्वाच्य प्रकृति के बाँधने वाले परमात्मा को ( निरविन्दन् ) पाते हैं |

व्याख्या -- जो लोग ईश्वर को कामनारहित कहते हैं , वे वास्तव में तात्पर्य को नहीं समझते क्योंकि 'सोsकामयत' ( तै . उप . २-६ ) = उसने कामना की , 'तदैक्षत' ( छा . उप . ६-२-१ ) = उसने ईक्षण किया इत्यादि श्रुतिवाक्यों से ब्रह्म में काम का सद्भाव प्रसिद्ध है | यदि काम न होता तो यह सृष्टि भी नहीं होती | इस हेतु जीवों के स्व-स्व कर्मानुसार फल भोगने के लिए सृष्टि करने की ईश्वर की कामना अवश्य थी | और यही कामना मानो , जगद्रचना का बीजभूत थी | उस कर्त्ता-धर्त्ता परमात्मा को कविगण अपनी बुद्धि से इसी विनश्वर हृदय में प्राप्त करते हैं | उसके अन्वेषण के लिए बाह्य जगत् में इतस्ततः दौड़ना नहीं पड़ता | सतो बन्धुम् = सत् नाम जड़ जगत् के कारण प्रकृति का है | उस कारण को परमेश्वर अपने वश में रखता है | इस हेतु वह बन्धु कहलाता है | बन्धु नाम बाँधने वाला | 

5 ) तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासीउदुपरि स्विदासिउत्  |
रेतोधा आसन् महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात् प्रयतिः परस्तात्  ||

( एषाम् ) इन सृष्ट पदार्थों के ( रश्मिः ) सूर्यकिरण के समान विस्तार ( स्वित् ) क्या ( तिरश्चीनः ) तिर्यग्भाव टेढ़ा ( विततः ) फैला हुआ था | ( स्वित् ) अथवा क्या ( अधः + आसीत् ) नीचे था अथवा ( उपरि + आसीत् ) ऊपर था , यह कुछ कहा ही नहीं जा सकता | यह सृष्ट जगत् ऊपर अथवा नीचे अथवा सीधा या टेढ़ा है , इसका निश्चय नहीं हो सकता , किन्तु ( रेतोधाः + आसन् ) जीव थे ( महिमानः + आसन् ) और उस ब्रह्म के प्रकृति के और जीवों के महत्त्व थे | ( स्वधा + अवस्तात् ) प्रकृति नीचे थी और ( प्रयतिः ) ईश्वरीय प्रयत्न ( परस्तात् ) ऊपर था अर्थात उस प्रकृति के ऊपर काम करने वाला था | 

व्याख्या -- यह सृष्टि किस प्रकार स्थापित है और कहाँ तक है , इसका आदि-अन्त कहीं है अथवा नहीं , इत्यादि ज्ञान कठिन है किन्तु रेतोधा = जीवात्मा इत्यादिक हैं , थे और रहेंगे , यह विस्पष्ट प्रतीत होता है | रेतोधा = यह जीवात्मा वाचक शब्द है | जीवात्मा का परम्परा , वंश चलाने के लिए आवश्यक है कि उसमे बीजस्वरूप वीर्य हो | अत एव 'रेतो वीर्यं दधातीति रेतोधा' अर्थात [ जो ] वीर्य को धारण करे उसे रेतोधा कहते हैं | अनेक लक्षणों में से जीव का एक लक्षण यह है कि जो अपने समान बीज को छोड़ जाए , उसको जीवात्मा कहते हैं | प्रत्येक जीव की यह स्वभाविक प्रवृत्ति है कि वह अपने समान बीज छोड़ को छोड़ जाता है | उद्भिज्ज सृष्टि में इसकी तो बहुत ही अधिकता है किन्तु अण्डज , जरायुज और ऊष्मज जीवों में भी इसकी न्यूनता नहीं | प्रत्येक प्राणी अपने समान कम से कम एकाध अपत्य उत्पादन के लिए सचेष्ट रहता है और प्रायः सन्तान छोड़ भी जाता है | अत एव इस सृष्टि के प्रवाह का उच्छेद नहीं होता | सायण भी रेतोधा शब्द का अर्थ जीवात्मा करते हैं | उनका शब्द इस प्रकार है -- "रेतसो बीजभूतस्य कर्मणो विधातारः कर्त्तारो भोक्तारश्च जीवः" -- सायण रेत शब्द का अर्थ 'बीजभूत कर्म' करते हैं | किन्तु रेत शब्द का अर्थ वीर्य भी प्रसिद्ध है | जैसे ऊर्ध्वरेता योगिगण कहलाते हैं | 'स्वधावस्तात्' = स्वधा नाम प्रकृति का है और वह अचेतन है , अत एव जीव और ईश्वर के नीचे उसे स्वभावतया ही रहना पड़ता है | इस हेतु स्वधा के नीचे रहने का वर्णन यहाँ आया है | और 'प्रयतिः परस्तात्' = प्रयति नाम प्रयत्न का है | प्रयत्न प्रकृति के ऊपर है अर्थात उसका शासक है , यह प्रत्यक्ष है |


6 ) को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् कुत आ जाता कुत इयं विसृष्टिः  |
अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आ बभूव  ||

( इयम् + विसृष्टिः ) यह विविध सृष्टियाँ ( कुतः + आजाता ) किस उपादान कारण से अच्छे प्रकार हुईं ? ( कुतः ) और किस निमित्त कारण से हुईं ? ( कः ) कौन विद्वान ( अद्धा ) परमार्थ रूप से ( वेद ) इन विविध सृष्टियों को जानते हैं ? ( कः ) कौन तत्त्ववित् ( इह ) इस लोक में ( प्रवोचत् ) इनकी व्याख्या हम लोगों को सुनावें ? यदि साधारण पृथिवीस्थ विद्वान इस सृष्टि की व्याख्या न कर सकें तो कदाचित सूर्यादि देव इसके तत्त्व को जानते हों तो उनसे पूछ कर निश्चय किया जाए और इस सन्देह को मिटाने के लिए देवों की भी अज्ञता आगे कहते हैं | ( अस्य ) इस जगत के ( विसर्जनेन ) त्याग से अर्थात उसके ( अर्वाक् ) पश्चात ( देवाः ) देवगण उत्पन्न हुये अर्थात प्रकृति अथवा परमाणु नित्य हैं और इनके संघात से जब कार्य जगत पृथिव्यादिक बन चुके , तब अन्यान्य देवों की सृष्टि हुई | इस हेतु वे भी इसके तत्त्व को जानने में सर्वथा असमर्थ हैं | ( अथ ) तब ( कः + वेद ) कौन जानता है ( यतः + आबभूव ) जिस निमित्तोपकारण से ये सृष्टियाँ हुई |

7 ) इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न  |
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अंग वेद यदि वा न वेद  ||

( यतः ) जिस निमित्तकारणीभूत परमात्मा से ( इयम् + विसृष्टिः ) ये विविध सृष्टियाँ ( आबभूव ) हुआ करती हैं , वही ( यदि + वा + दधे ) यदि इसको धारण करता है तो वही धारक है | ( यदि + वा + न ) यदि वह इसका धारण नहीं करता है तो अन्य कोई इसका अध्यक्ष है ( सः ) वह ( परमे + व्योमन् ) परम उत्कृष्ट निज महिमा में विद्यमान है ( अंग ) हे मनुष्यों !  ( वेद ) वही जानता है ( यदि + वा + न + वेद ) यदि वह नहीं जानता तो दूसरा इसको कोई नहीं जानता | इससे संसार की दुर्विज्ञेयता और दुर्द्धस्त्व इत्यादि सिद्ध किया गया है | 




नासदीय सूक्त की यह व्याख्या व् पदार्थ पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ जी की पुस्तक - "त्रैतसिद्धान्तादर्श" - से है | पण्डित जी ने छठे व् सातवें मन्त्र की व्याख्या नहीं दी , केवल पदार्थ ही दिया है | त्रैतसिद्धान्त  पर अधिक जानकारी के लिए जिज्ञासुजन सम्पूर्ण पुस्तक पढ़ें |
प्रकाशक :-
रामलाल कपूर ट्रस्ट 
ग्राम रेवली , पो . शाहपुरतुर्क , जिला सोनीपत - १३१००१ , हरयाणा 

1 comment: