Thursday, 22 August 2013

संगठन से उन्नति

सं समिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ !
इळस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर !!
मनुष्य की सारी चेष्टा दुखनिवारण और सुख प्राप्ति के निम्मित होती है अतः अंत में सुखवर्षक भगवान् की शरण में जाकर उसी से वह कामना करता है!वही सबकी उन्नति करता है, और वही सबका स्वामी है! उसे साधक ने अपने हृदय में प्रकाशमान और विराजमान अनुभव किया है, अतः उसी से अपने दुखों के नाशक और सुखों के साधक धनों की प्राप्ति के लिए प्रार्थना की है! इस प्रार्थना का भगवान् ने अगले तीन मन्त्रों में उत्तर दिया है---
सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनान्सि जानताम् !
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते !!
मनुष्य समाज यदि सुख चाहता है, तो उसे उत्तम प्रकार का, एक-सा आचार बनाना होगा! उस उत्तम आचार के लिए एक-सा उच्चार =बोली=भाषा का ग्रहण करना होगा! उच्चार की समानता लिए विचार की समानता अनिवार्य है! विद्वान लोगों का ऐसा ही व्यवहार होता है! दुसरे शब्दों में संगति,संवाद एवं संज्ञान से ही मनुष्य समाज का कल्याण हो सकता है !
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह् चित्त्मेषां !
समानं मन्त्रमभिमन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि !!
विचार,विचार सभा ,विचारसाधन तथा विचार का फल समझ कर सबकी धारणा एक-सी होनी चाहिए ! भगवान् कहते
है कि तुम सबको मैंने एक ही मन्त्र=वेद मन्त्र दिया है, और तुम्हारे लिए एक ही भोग सामग्री दी है !
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः !
समानमस्तु वो मनो यथा वः सु सहासति !!
संकल्प की एकता के लिए सारे समुदाय को दिल, दिमाग भी वैसे बनाने चाहिए !
यह चार मन्त्र ऋग्वेद के अंतिम मन्त्र है! ऋग्वेद में विज्ञान--परमाणु से लेकर ब्रह्मपर्यंत सब पदार्थों का यथार्थ मनुष्योपयोगी ज्ञान--का भगवान् ने उपदेश किया है! उस समस्त ज्ञान का फल मनुष्य के आचार-विचार की एकता होनी चाहिए , उसके लिए भगवान् ने ऋग्वेद के अंत में इस सुन्दर,सुमनोहर संज्ञान का उपदेश किया है! जो समाज या राष्ट्र इसके अनुसार आचरण करेगा,अवश्य वह धन-धान्य से परिपूर्ण और सुखसमृद्धि से समृद्ध होगा !
इस सूक्त का ,जैसा कि हम बता चुके है,पहला मन्त्र भगवान् से प्रार्थना है! प्रार्थी ने धन कि प्रार्थना की है! भगवान् ने उत्तर में धन ,सुख-साधन प्राप्त करने की युक्तियों का अगले तीन मन्त्रों में उपदेश कर दिया है ! उस उपदेश का सार यह है कि----संघशक्ति उत्पन्न करो!संघशक्ति के लिए आचार-विचार की समानता,उद्देश्यों-भावनाओं की समता , दिलों और दिमागों की एकता, दिल और दिमाग का परस्पर सहयोग ,उपासना पद्धति की समानता,खान_पान की समानता आवश्यक है! जब इस प्रकार की समता समाज में हो,तब ईर्ष्या -द्वेष,वैर-वैमनस्य का कोई स्थान नहीं रहता !

साभार:-स्वामी वेदानन्द (दयानद) तीर्थ की पुस्तक "स्वाध्याय -संदीप" से