नास्तिकता जब बौद्ध सिद्धान्त के नाम से फ़ैल गई तो उसका जो परिणाम हुआ उसे हम अपने शब्दों में न लिखकर श्री राहुल सांकृन्तायन के शब्दों में रखना उचित समझते हैं | अपनी "बुद्धचर्या" की भूमिका में वे लिखते है -----
"कनिष्क के काल में पहले पहल बुद्ध की प्रतिमा ( मूर्ति ) बनाई गई | महायान के प्रचार के साथ जहाँ बुद्ध प्रतिमाओं की पूजा अर्चना बड़े ठाट -बाट से होने लगी , वहाँ सैकड़ों बोधिसत्वों की भी प्रतिमायें बनने लगीं | इन बोधिसत्वों को उन्होंने ब्राह्मणों के देवी देवताओं का काम सौंपा | उन्होंने तारा , प्रज्ञा पारमिता , विजया आदि अनेक देवियों की भी कल्पना की | जगह-जगह इन देवियों और बोधिसत्वों के लिए बड़े-बड़े विशाल मन्दिर बन गये | इनके बहुत से स्तोत्र आदि भी बनने लगे | इस बाढ़ में इन्होंने यह ख्याल न किया कि हमारे इस काम से किसी प्राचीन परम्परा या किसी भिक्षु नियम का उल्लंघन होता है | जब किसी ने दलील पेश की तो कह दिया -- विनय नियम तुच्छ स्वार्थ के पीछे मरनेवाले हीनयानियों के लिए हैं , सारी दुनियाँ की मुक्ति के लिये मरने-जीनेवाले बोधिसत्व को इस की वैसी पाबन्दी नहीं हो सहती | उन्होंने हीनयान के सूत्रों से अधिक महात्म्यवाले अपने सूत्र बनाये | सैकड़ों पृष्ठों के सूत्रों का पाठ जल्दी नहीं हो सकता था इसलिये उन्होंने हर एक सूत्र की दो तीन पंक्तियों में छोटी-छोटी धारणी बनाई | इन्हीं धारणियों को और संक्षिप्त करके मन्त्रों की सृष्टि हुई | इस प्रकार धारणियों , बोधिसत्वों , उनकी अनेक दिव्य शक्तियों तथा प्राचीन परम्परा और पिटक की निस्संकोच की जाती -- उलट-पुलट से उत्साहित हो , गुप्त साम्राज्य के आरम्भिक काल से हर्षवर्धन के समय तक मञ्जु श्री मूल कल्प , गुह्य समाज और चक्र संवर आदि कितने ही तंत्रों की सृष्टि की गई | पुराने निकायों ने अपेक्षाकृत सरलता अपनी मुक्ति के लिये अर्हद् यान और प्रत्येक बुद्धयान का रास्ता खुला रखा था | महायान ने सबके लिये सुदुश्चर बुद्धयान का ही एकमात्र रास्ता रखा | आगे चलकर कठिनाई को दूर करने के लए ही उन्होंने धारणियों , बोधिसत्वों की पूजाओं का आविष्कार किया | इस प्रकार जब आसान दिशाओं का मार्ग खुलने लगा , तब उसके अविष्कारकों की भी संख्या बढ़ने लगी | मञ्जु श्री मूल कल्प ने तन्त्रों के लिये रास्ता खोल दिया | गुह्य समाज ने अपने भैरवी चक्र के शराब , स्त्री सम्भोग तथा मंत्रोच्चारण से उसे और भी आसान कर दिया | यह मत महायान के भीतर से ही उत्पन्न हुआ , किन्तु पहले इसका प्रचार भीतर ही भीतर होता रहा | भैरवी चक्र की सभी कार्यवाहियाँ गुप्त रखी जाती थीं | प्रवेशाकांक्षी को कितने ही समय तक उम्मीदवारी करनी पड़ती थी | यह मन्त्रयान ( तन्त्रयान , वज्रयान ) सम्प्रदाय इस प्रकार सातवीं शताब्दी तक गुप्तरीति से चलता रहा | इसके अनुयायी बाहर से अपने को महायानी ही कहते थे | महायानी भी अपना पृथक विनय पिटक नहीं बना सके थे इसलिये इनके भिक्षु लोग सर्वास्तिवाद आदि निकायों में में दीक्षा लेते थे | आठवीं शताब्दी में भी , जबकि नालन्दा महायान का गढ़ थी , वहाँ के भिक्षु सर्वास्तिवाद विनय के अनुयायी थे | तन्त्र के प्रचुर प्रचार से भिक्षुओं को सर्वास्तिवाद को , बोधिसत्वचर्या में महायान की और भैरवी चक्र में वज्रयान की दीक्षा लेनी पड़ती थी |
आठवीं शताब्दी में एक प्रकार से भारत के सभी बौद्ध सम्प्रदाय वज्रयान गर्भित महायान के अनुयायी हो गए थे | बुद्ध की सीधी-सीधी शिक्षाओं से उनका विश्वास उठ चुका था और वे मनघड़ंत हजारों लोकोक्तर कथाओं पर विश्वास करते थे | बाहर से भिक्षु के कपड़े पहनने पर भी वे भीतर से गुह्य समाजी थे | बड़े-बड़े विद्वान और प्रतिभाशाली कवि आधे पागल हो , चौरासी सिद्धों में दाखिल हो सन्ध्या भाषा में निर्गुण गान करते थे | सातवी शताब्दी में उड़ीसा के राजा इन्द्रभूति और उसके गुरु सिद्ध अनङ्ग वज्र तथा दूसरे पण्डित सिद्ध , स्त्रियों को ही मुक्तिदात्री प्रज्ञा , पुरुषों को ही मुक्ति का 'उपाय' और शराब को ही अमृत सिद्ध करने में अपनी पण्डिताई और सिद्धाई खर्च कर रहे थे | आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक का बौद्ध धर्म वस्तुतः वज्रयान या भैरवी चक्र का धर्म था | महायान ने ही धारणियों और पूजाओं से निर्वाण को सुगम कर दिया था , वज्रयान ने उसे एकदम सहज कर दिया इसलिए आगे चलकर वज्रयान -"सहजयान"-भी कहा जाने लगा | "
"वज्रयान के विद्वान प्रतिभाशाली कवि चौरासी सिद्ध ........लोग शराब में मस्त , खोपड़ी का प्याला लिए श्मशान या विकट जंगलों में रहा करते थे | जन साधारण को जितना ये फटकारते थे उतना ही लोग इनके पीछे दौड़ते थे | ये "सिद्ध" लोग खुल्लमखुल्ला स्त्रियों औए शराब का उपभोग करते थे | राजा अपनी कन्याओं तक को इन्हें प्रदान करते थे |..........इन पाँच शताब्दियों में धीरे-धीरे एक तरह से सारी भारतीय जनता इनके चक्कर में पड़कर काम व्यसनी , मद्यप और मूढ़ विश्वासिनी बन गई थी | राजा लोग जहाँ राजरक्षा के लिये पलटनें रखते थे वहाँ उसके लिये किसी सिद्धाचार्य तथा उसके सैकड़ों तान्त्रिक अनुयायियों की भी एक बहु व्यय -साध्य पलटन रखा करते थे | देव मन्दिरों में बराबर ही बलि पूजा चढ़ती रहती थी | लाभ-सत्कार द्वारा उन्युक्त होने से ब्राह्मणों और दूसरे धर्मानुयायियों ने भी बहुत अंश में इनका अनुसरण किया | "
अन्धविश्वास इतना !!! -- " भारतीय जनता जब इस प्रकार दुराचार और मूढ़ विश्वास के पंक में कंठ तक डूबी हुई थी | ब्राह्मण भी जाति भेद के विष बीज को शताब्दियों तक बोकर , जाती टुकड़े-टुकड़े बाँटकर घोर गृह कलह पैदा कर चुके थे | .............तुर्कों ने मन्दिरों की अपार सम्पत्ति को ही नहीं लूटा , बल्कि अगणित दिव्य शक्तियों की मालिक देव मूर्तियों को भी चकनाचूर कर दिया | तान्त्रिक लोग , मन्त्र , बलि और पुरश्चरण का प्रयोग करते ही रह गये | किन्तु उससे तुर्कों का कुछ नहीं बिगड़ा | ............जिस विहार के पालवंशी राजा ने राज्य रक्षा के लिये उडंत पुरी का तान्त्रिक विहार बनाया था उसे मुहम्मद बिन बख्त्यार उद्दीन ( मुहम्मद बिन बख्त्यार ) ने सिर्फ दो सौ घुड़सवारों से जीत लिया | नालन्दा की अद्भुत शक्तिशाली तारा टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दी गई | नालन्दा और विक्रमशिला के सैकड़ों तान्त्रिक भिक्षु तलवार के घाट उतर दिये गये |".......
राहुलजी का रक्तरोदन -- " लेकिन प्रश्न होता है कि तुर्कों ने तो बौद्धों और ब्राह्मणों , दोनों के ही मन्दिरों को तोड़ा , पुरोहितों को मारा , फिर क्या वजह है जो ब्राह्मण भारत में अब भी है और बौद्ध न रहे | बात यह है कि ब्राह्मण धर्म में गृहस्थ भी धर्म के अगुआ हो सकते थे , बौद्ध भिक्षुओं पर ही धर्म प्रचार और धार्मिक ग्रंथों की रक्षा का भार था | ब्राह्मणों में भी यद्यपि वाममार्गी थे किन्तु सभी नहीं | बौद्धों में तो सब वज्रयानी थे | इनके भिक्षुओं की प्रतिष्ठा उनके सदाचार और विद्या पर न थी , बल्कि उनके तथा उनके मन्त्रों और देवताओं की अद्भुत शक्तियों पर थी | तुर्कों की तलवारों ने इन अद्भुत शक्तियों का दिवाला निकाल दिया | जनता समझने लगी ; हम धोखे में थे | इसका फल यह हुआ कि जब बौद्ध भिक्षुओं ने अपने टूटे मठों और मन्दिरों को फिर से मरम्मत कराना चाहा तब इनके लिये इन्हें रूपये नहीं मिले | वस्तुतः इन आचारहीन शराबी भिक्षुओं को उस समय -- जबकि तुर्कों के अत्याचार के कारण लोगों को एक-एक पैसा बहुमूल्य प्रतीत होता था -- कौन रुपयों की थैली सौंपता ? फल यह हुआ कि बौद्ध अपने टूटे धर्मस्थलों की मरम्मत कराने में सफल न हो सके और इसप्रकार उनके भिक्षु अशरण हो गये |
ब्राह्मणों में यह बात न थी | उनमे सबके सब वाममार्गी न थे | कितने ही अब भी अपनी विद्या और आचरण के कारण पूजे जाते थे | इसलिए उन्हें फिर अपने मन्दिरों को बनवाने के लिये रूपये मिल गये |".......
श्री राहुल सांकृन्तायन जी स्वयं अपने को बौद्धमत अनुयायी कहते हैं अतः हमने उनकी - "बुद्धचर्या" - की भूमिका से यह विस्तृत उद्धरण यह दिखाने के लिये दिया है कि बौद्धमत के नाम से नास्तिकता का प्रचार होने पर उसका नैतिक दृष्टि से कैसा भयंकर परिणाम हुआ | जिस बौद्धमत के विषय में यह दावा किया जाता है कि उससे अधिक सदाचार का प्रतिपादक कोई धर्म नहीं , उसमे श्री राहुल जी के ऊपर उद्धृत लेखानुसार सबके सब वज्रयानी व् वाममार्गी , शराबी बन जाएँ और उनके व्यभिचार तथाकथित सिद्धों का इतना अधिक मान हो इसके कारण पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है | हमारे विचार में तो इस नैतिक पतन का कारण स्पष्ट है | जब कर्म फलदाता न्यायकारी परमेश्वर की सत्ता पर कोई विश्वास न हो , जब नित्य आत्मा की सत्ता पर विशवास न हो , जब धर्म के लिये मुख्य प्रमाण वेदों पर विशवास न हो तो उसका स्वाभाविक परिणाम स्वेच्छाचारिता और नैतिक पतन है | इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं |
( -- विद्यामार्तण्ड स्वामी धर्मानन्द )